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१६ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. २
० प्रयत्न-निरूपणम् ० निसरणं = उरः कण्ठादिस्थानप्रयत्नाद् यथाविभागं निसृज्यमानानि तान्येव । पराघातश्च = तैरेव भाषाद्रव्यैर्निसृष्टैः प्रेर्यमाणानि
भाषाद्रव्याणि गृहणाति तानि ग्रहणद्रव्यभाषेति तात्पर्यम । यद्वा शक्यते एवमपि समाधातुं यदुत 'काययोगेने' त्यन्यत्र सामान्यतो निर्देशः 'वचोयोगपरिणतेने'त्यत्र विशेषतो निर्देशः काययोगविशेषस्यैव वचोयोगरूपत्वात् एकस्यैव काययोगस्य उपाधिभेदात् त्रिधा विभजनस्य तत्र तत्र प्रसिद्धत्वादित्यूहनीयम्। गृहीतानि तु निसृष्टान्यपि स्युरिति तद्व्यवच्छेदार्थमाह-अनिसृष्टानि अत्यक्तानि। __समुच्चय इति। विरोधानवगाहिज्ञानं समुच्चय इत्येके । कर्मद्वयस्यैकक्रियानिष्ठत्वं समुच्चय इत्यन्ये। परस्परनिरपेक्षाणामनेकेषामेकस्मिन्नन्वय समुच्चय इत्यपरे। वयं तु ब्रूमहे परस्परभिन्नयोरेकत्र संकलनं समुच्चयः। द्विवचनं चोपलक्षणं बहुवचनस्येति भावनीयम् ।
द्वितीयभेदमाह निसरणमिति। उरस्कण्ठादिस्थानप्रयत्नादिति। आदिपदेनौष्ठ-शिरोजिह्वामूल-तालु-नासिकादशनादिग्रहणम्। उर:कण्ठादिस्थानेषु प्रयत्नः तस्मात्। प्रयत्नश्च नात्मव्यतिरिक्त आत्मनिष्ठः 'करोमी'त्यनुभवविषयवृत्तिगुणत्वव्याप्यजातिमान् किन्तु आत्मप्रदेशपरिस्पन्दः। तदुक्तं स्याद्वादरत्नाकरे 'वीर्यान्तरायक्षयोपशमादिकारणादिना ह्यात्मप्रदेशपरिस्पन्दः प्रयत्नः, प्रयत्नः क्रियैवेति स्याद्वादिभिः स्वीकारात्' (प्र. त. अ. ५. सू. ८ स्या. र.) तान्येवेति। गृहीतान्येव । अगृहीतस्य निःसरणाऽभावात् प्रथमं ग्रहणद्रव्यभाषोपादानम्। गृहीतेऽप्यनिसृष्टे सति वासकत्वायोगात्तदनन्तरं निसरणद्रव्यभाषानिर्देशः। निसर्गे सत्येव भाषासंस्काराधानात्तदनन्तरं पराघातद्रव्यभाषाप्रदर्शनमिति युक्तोऽयं क्रमोल्लेखः।
ज्ञ=भाषा के स्वरूप का ज्ञाता था। जो बालक आदि भविष्यकाल में भाषा के स्वरूप को जानने वाला है, उसका शरीर वर्तमान में नोआगम से भव्यशरीर द्रव्यभाषास्वरूप है, क्योंकि वर्तमान में वह शरीर ज्ञानशून्य है तथा भव्य = भाषा के सम्बन्धी ज्ञान के योग्य है या भाषाविषयक ज्ञान को प्राप्त करनेवाला है। उपर्युक्त निक्षेप का निरूपण अनुयोगद्वार सूत्र में विस्तार से उपलब्ध होने से तथा निक्षेप के अभ्यासी के लिए सुगम होने से विवरणकार ने इसकी उपेक्षा की है। नोआगम से ज्ञशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यभाषा का निरूपण करते हुए विवरणकार कहते हैं कि - नोआगम से तव्यतिरिक्त द्रव्यभाषा के तीन भेद हैं १ ग्रहणद्रव्यभाषा, २ निसरणद्रव्यभाषा, ३ पराघातद्रव्यभाषा।
* विपरिणत अनुषङ्ग * यहाँ यह शंका हो कि - "गाथा में भाषा शब्द का ग्रहण नहीं किया है। अतः 'ये तीन प्रकार किसके हैं?' इस शंका का समाधान नहीं होता है, क्योंकि विशेषण और विशेष्य दोनों का कथन होने पर श्रोता को निराकांक्ष शब्द बोध होता है। सिर्फ विशेषणपद के श्रवण से या सिर्फ विशेष्यपद के श्रवण से वह नहीं हो पाता। अतः यहाँ 'त्रिविधा' रूप सिर्फ विशेषण पद के प्रयोग से निराकांक्ष प्रतिपत्ति नहीं हो सकती है" - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि प्रथम श्लोक के द्वितीय पाद में जो भाषारहस्य पद है, इसका विपरिणाम कर के = मूलप्रकृति को बदल कर विपरिणत 'भाषा' पद का, जो कि पूर्वश्लोक में रहस्य के साथ अन्वित था, त्रिविधरूप विशेषण में अन्वय करेंगे। अतः निराकांक्ष प्रतिप्रति = बोध होने से यहाँ कोई दोष नहीं है।
* ग्रहण-निसरण-पराघात द्रव्यभाषा निरूपण * 'ग्रहणं' इत्यादि। नोआगम से तद्व्यतिरिक्त द्रव्यभाषा के प्रथम भेद का निरूपण करते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि काययोग से परिणत आत्मा भाषापरिणमन योग्य द्रव्यों को ग्रहण कर के जब तक उनका त्याग नहीं करता है तब तक वे भाषाद्रव्य नोआगम से तद्व्यतिरिक्त ग्रहणद्रव्यभाषा कहे जाते हैं। हृदय, कंठ आदि शब्दउत्पादक स्थानो में प्रयत्न कर के तत्तत् विभाग के अनुसार पूर्वगृहीत भाषाद्रव्यों को पुरुष छोडता है, तब वे भाषाद्रव्य निसरण द्रव्यभाषास्वरूप होते हैं।
यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि जैनदर्शन के सिद्धांत के अनुसार संपूर्ण लोक में भाषा वर्गणा यानी भाषापरिणमनप्रायोग्य