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* भाषाद्रव्येषु सूक्ष्मत्व-बादरत्वविरोधपरिहार: *
१९ सङ्ख्येयप्रदेशावगाढानि वा? कालतश्चैकसमयस्थितिकानि यावदसङ्ख्येयसमयस्थितिकानि वा? भावतश्च वर्णवन्ति, गन्धवन्ति, ग्रहणयोग्यायोग्यत्वविमर्शो युक्तो न त्वसति, अन्यथा वन्ध्यापुत्रनामोत्कीर्तनमपि युक्तं स्यात्तथाप्येकपरमाण्वाद्यात्मकैकप्रदेशाद्यवगाढ-सामान्यपुद्गलस्कन्धापेक्षयाऽत्र ग्रहणाऽयोग्यत्वस्य प्रसङ्गतः प्रतिपादनान्न दोषः, प्रौढोक्तित्वाच्च नाऽर्थान्तरनिग्रहस्थानप्राप्तिरिति सूक्ष्मेक्षिकया पर्यालोचनीयम्।
'कालत' इत्यादि। अत्रोत्कर्षतोऽसंख्येयसमयस्थितिः भाषाद्रव्येषु भाषावर्गणाऽपेक्षया स्कंधस्थित्यपेक्षया चासंख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीरूपा द्रष्टव्या, व्याख्याप्रज्ञप्त्यादिषु परमाणोः पुनः परमाणुभवनेऽसङ्ख्येयकालचक्ररूपस्याऽन्तरकालस्योक्तत्वात्। अनन्तसमयस्थितिस्तु न संभवति, "पुद्गलसंयोगस्थितेरुत्कृष्टतोऽप्यस
ङ्ख्येयकालत्वादि" त्यनुयोगद्वारवृत्तौ श्रीमलधारिहेमसूरिभिरुक्तत्वात्, सूत्रप्रामाण्यात् । भाषाद्रव्याणां शब्दपरिणामापेक्षयोत्कर्षतः स्थितिरावलिकाया असङ्ख्येयभागरूपा द्रष्टव्या। तदुक्तं व्याख्याप्रज्ञप्तौ "सद्दपरिणए णं भंते! पोग्गले
'अथ.' इत्यादि। यहाँ यह जिज्ञासा हो सकती है कि "-जीव स्थिर भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है - यह तो ज्ञात हुआ, मगर द्रव्य की अपेक्षा क्या इधर उधर बिखरे हुए स्वतंत्र परमाणुस्वरूप द्रव्यों को जीव ग्रहण करता है या संख्यातप्रदेश स्कंधात्मक द्रव्यों को ग्रहण करता है, या अनंतप्रदेशस्कंधात्मक भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है? १, क्षेत्र की अपेक्षा जीव क्या एकप्रदेश में अवगाढ=रहे हुए भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है या दो-तीन आकाशप्रदेश में रहे हुए भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है? या असंख्य आकाशप्रदेश में रहे हुए भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है? २, जीव जिन भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है, उन भाषाद्रव्यों की कालस्थिति क्या एक समय की होती है, दो समय की होती है, या असंख्य समय की होती है? ३, जीव जिन भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है वे भाषाद्रव्य क्या वर्ण, गंध, रस, स्पर्श से युक्त होते हैं या वर्णादि से शून्य होते हैं?" ४|
"द्रव्यादि'. इत्यादि। इस जिज्ञासा का समाधान करते हुए विवरणकार कहते हैं कि - द्रव्यादिविशेषता आगम के अनुसार यथासंभव ज्ञातव्य है। देखिये, जीव जिन भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है वे अवश्य अनन्तपरमाणुनिष्पन्न स्कंधरूप होते हैं। जीव का ऐसा सामर्थ्य ही नहीं है कि एक, दो, संख्यात या असंख्यात परमाणु के समूह से निष्पन्न स्कंध का ग्रहण कर सके। अतः एक, दो संख्यात, असंख्यात परमाणु के समूहात्मक स्कंध जीव के लिए ग्रहण के अयोग्य हैं। क्षेत्र की अपेक्षा विचार किया जाय तो जीव असंख्य आकाशप्रदेश में अवगाढ भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है। एक, दो यावत् संख्यात आकाशप्रदेश में रहे हुए पुद्गल स्कंध जीव के लिए ग्रहण के अयोग्य होते हैं। लोकाकाश में ही पुद्गल होते है, अलोकाकाश में नहीं तथा लोक असंख्य आकाशप्रदेशात्मक ही है, अनंतप्रदेशात्मक नहीं। अतः अनंतप्रदेश में अवगाढ भाषाद्रव्यों को अभाव होने से ही उनके ग्रहण-अग्रहण की बात नहीं है। विद्यमान वस्तु के सम्बन्ध में ही योग्यायोग्य की चर्चा होती है, अविद्यमान वस्तु के सम्बन्ध में नहीं। अतः यहाँ 'अनंत आकाशप्रदेश में अवगाढ भाषाद्रव्य ग्रहण के अयोग्य है' ऐसा निषेध नहीं किया गया है।
कालतः इत्यादि। काल की अपेक्षा विचार किया जाय तो जीव जिन भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है उनमें से कुछ एक समय की स्थिति वाले होते हैं, कुछ दो समय की स्थितिवाले होते हैं, कुछ संख्यात समय की स्थितिवाले होते हैं और कुछ असंख्य समय की स्थितिवाले होते हैं। यहाँ प्रकरणकार व्याख्याप्रज्ञप्ति का हवाला देते हैं, जिसका अर्थ है, 'निरेज-पुद्गल जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से असंख्य समय पर्यन्त रहते हैं'।
पुद्गल की उत्कृष्ट स्थिति उस स्कंधरूप में, वर्गणारूप में असंख्य काल तक ही होती है। एक समय की स्थिति का प्रतिपादन करते हुए बताते हैं कि - ग्रहणसमय के बाद निसर्ग करने पर, भाषाद्रव्यों को छोड़ने पर गृहीत भाषा द्रव्यों की एक समय की स्थिति होती है। इस सम्बन्ध में अन्य आचार्यो का यह अभिप्राय है कि-पुद्गलों का स्वभाव विचित्र है। अतः जीव एक प्रयत्न से जिन भाषाद्रव्यों को ग्रहण कर के छोडता है उनमें से कुछ भाषाद्रव्य भाषारूप से एक समय तक रहते हैं, कुछ भाषाद्रव्य दो, तीन यावत् असंख्य समय तक रहते हैं। निसर्ग काल में भाषाद्रव्य में प्रथम शब्दपरिणाम उत्पन्न होता है। निसर्ग के बाद जो भाषाद्रव्य एक समय तक भाषारूप से रहते हैं, उनमें भाषापरिणाम एक समय तक रहता है। अतः उन भाषाद्रव्यों की स्थिति एक समय की होती है। इस सम्बन्ध में अन्य प्राचीन मत तथा वर्तमान के अन्य विद्वानों का मत और मेरा अभिप्राय मैंने मोक्षरत्ना में बताया है। जिज्ञासु पाठक वहाँ देख सकते हैं।