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* समाप्तिपदार्थप्रकाशनम् *
फलानुत्पत्तेः । नाऽन्त्यः आवश्यकत्वा-द्विघ्नध्वंसस्यैव मङ्गलफलत्वेऽपूर्वकल्पनावैयर्थ्यादिति चेत् ? न शिष्टाचारपरिपालनद्वारा मङ्गलस्याऽपूर्वजनकत्वेऽपि विघ्नध्वंस- हेतुत्वाऽविरोधात्, पुण्यप्रकृतिबन्ध - पापप्रकृत्युच्छेदयोर्युगपद्भावात् ।
णामवर्णत्वात्, तत्साधारणवर्णत्वाऽभ्युपगमेऽपि तेषां चिरञ्जीवित्वेन तत्समाप्त्यनन्तरमप्यसमाप्तत्वव्यवहारप्रसङ्गात् । केचित्तु चरमवर्णज्ञानमेव समाप्तिरित्याहुः तन्न चारु, कस्यचिदचरमवर्णे चरमत्वभ्रमे सति समाप्तत्वव्यवहारप्रसङ्गात्, तादृशप्रमाविवक्षणेऽपि तन्नाशानन्तरमसमाप्तत्वापत्तेः, वैयधिकरण्याच्च । स्यादेतत् - ग्रन्थकारीयप्रतिज्ञाविषयसिद्ध्युपधायककृतिविषयवर्णध्वंसो ग्रन्थपरिसमाप्तिः विवक्षितविषयप्रतिपादनं च ग्रन्थकारीयप्रतिज्ञाविषय इति मैवम् सिद्धिपदनिर्वचने आत्माश्रयदोषप्रसङ्गात्।
ननु तर्हि का ग्रन्थपरिसमाप्तिः ? सा चरमवर्णध्वंस इति पूर्वमुक्तमेव किं विस्मर्यते ? 'न, बाढं स्मरामि किन्तु चरमत्वनिर्वचनस्याऽघटमानत्वात् दोलायते मनः', उच्यते, अवहितो भव, यदुत्पत्तिसमकालमेव प्रतिज्ञाविषये साध्यताSऽख्यविषयता व्यवहारनयेन कार्त्स्न्येन विलीयते स प्रकृतग्रन्थनिविष्टो वर्णः चरमवर्णः तत्प्रतियोगिको ध्वंसः ग्रन्थसमाप्तिः । न च विघ्नबाहुल्येनाऽसमाप्तेऽपि ग्रन्थे समाप्तिव्यवहारप्रसङ्गः, प्रतिज्ञाविषये साध्यताख्यविषयताया अप्रच्यवात् । न वाऽन्यप्रारब्धाऽपरपरिसमाप्तकादम्बरीश्रीपालरासादिग्रन्थपरिसमाप्तिस्थलेऽव्याप्तिः । नाऽपि अन्यकृतग्रन्थसमाप्तिस्थले मूलग्रन्थकृदन्तिमवर्णध्वंसेऽतिव्याप्तिः । नाऽपि अभिप्रायान्तरारब्धाऽभिप्रायान्तरसमाप्तग्रन्थसमाप्तावव्याप्तिरिति ।
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केचित्तु स्वसमानजातीयपदार्थप्रागभावाऽनधिकरणत्वं चरमत्वमित्याहुः । स्वसजातीययावत्प्रतियोगिकध्वंससमकालिकत्वं चरमत्वमित्यन्ये । चरमत्वं जातिविशेष इत्यपरे वदन्ति । साङ्कर्यापत्तेरुपाधिविशेष एव चरमत्वमिति परे ।
वयन्तु ब्रूमः चरमत्वप्रकारकप्रमाविशेषविषयत्वरूपमेव चरमत्वं प्रकृते बोध्यम् । स्वरूपसम्बन्धेन निरुक्तचरमत्वविशिष्टवर्णप्रतियोगकध्वंस एव ग्रन्थसमाप्तिः । वर्णत्वञ्चात्र संज्ञाक्षर - व्यञ्जनाक्षरसाधारणं ज्ञेयं । एतेन लिप्यक्षरका अर्थ है समाप्तिकार्य का प्रतिबन्धक । प्रतिबन्धक सामग्री का विघटन करता है। कार्य की उत्पत्ति के लिए प्रतिबन्धक की निवृत्ति आवश्यक है, क्योंकि प्रतिबन्धक का अभाव समाप्ति कार्य की सामग्री में अंतःप्रविष्ट है। अन्य हजारों हेतु होने पर भी प्रतिबन्धकाभावरूप एक कारण के अभाव से समाप्तिरूप कार्य की निष्पत्ति की कल्पना अप्रामाणिक है, क्योंकि अपनी सामग्री में प्रविष्ट एक कारण के बिना भी कार्य उत्पन्न हो जाये तो कार्यकारणभावभंग की अनिष्टापत्ति होगी। इसलिए विघ्नरूप प्रतिबन्धक का उच्छेद किये बिना शिष्टाचारपरिपालनजन्य अपूर्व से ग्रन्थपरिसमाप्तिरूप फल की प्राप्ति असंभव है।
यदि शिष्टाचारपरिपालनजन्य अपूर्व विघ्नरूप प्रतिबन्धक का ध्वंस कर के ग्रन्थसमाप्तिरूप कार्य को उत्पन्न करेगा इत्याकारक द्वितीय विकल्प का आप स्वीकार करेंगे तो यह भी मुनासिब नहीं है, क्योंकि इस पक्ष की स्वीकृति गौरवग्रस्त होने से उपादेय नहीं हो सकती । देखिये आपके अभिप्राय के अनुसार मङ्गल से शिष्टाचारपरिपालन होगा। उससे अपूर्व की उत्पत्ति होगी । अपूर्व से विघ्न का ध्वंस होगा और इसके बाद समाप्तिस्वरूप फल की प्राप्ति होगी। हनुमानजी की पूंछ की तरह यह लम्बी कल्पना करने की अपेक्षा मङ्गल में ही विघ्नध्वंसजनकता और विघ्नध्वंस में ही मङ्गलजन्यता की कल्पना करने में लाघव है। मङ्गल और समाप्ति के बीच में शिष्टाचारपालन और अपूर्व की कल्पना करने के बाद भी समाप्ति के लिए विघ्नध्वंस की कल्पना आवश्यक ही है, तब तो मङ्गल को ही विघ्नध्वंस का कारण मानना उचित है। मङ्गल और विघ्नध्वंस के बीच अपूर्व और शिष्टाचारपरिपालन को खड़ा कर उन्हें समाप्ति का कारण क्यों माना जाय ?
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इसके अतिरिक्त यह भी एक विचारणीय बात है कि मङ्गलप्रयोज्य शिष्टाचारपालन से उत्पन्न होनेवाला अपूर्व भी विघ्नध्वंस को उत्पन्न किये बिना तो समाप्ति का कारण नहीं बन पाता। इसलिए यदि बीच में विघ्नध्वंस को मानना आवश्यक ही है तो फिर विघ्नध्वंस को ही मङ्गल का फल मानना उचित है, न कि समाप्ति को उसका फल मानना उचित है, क्योंकि समाप्ति तो बुद्धिप्रतिभा - कल्पनापटुता आदि के समूह से होती है।