________________
८ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा.१
०शिष्टत्वनिरुक्ति: ० कृत्वा? प्रणम्य-प्रकर्षेण नत्वा, कं? पार्श्वजिनेन्द्र, जयंति रागादिशत्रूनिति जिनाः सामान्यकेवलिनः तेष्विन्द्र इव प्राधान्यात् जिनेन्द्रः पार्श्वश्चासौ जिनेन्द्रश्च = पार्श्वजिनेन्द्रः तम् । अनेन समुचितदेवतानमस्काररूपं मङ्गलं कृतं तेन च शिष्टाचारः परिपालितो भवति । ___ अथ शिष्टाचारपरिपालनं न स्वतः प्रयोजनं सुख-दुःखाभावयोरन्यतरत्वाभावात् । अभीष्टाभिमताधिकृतभेदात्' (हा. आ. वृ. टी. पृ. १)। तेन च शिष्टेत्यादि। मङ्गलकरणेन च शिष्टाचारपरिपालनं कृतं भवतीत्यर्थः। शिष्टाचारपरिपालनघटकं शिष्टत्वं न वेदप्रामाण्याभ्युपगन्तृत्वम्, अप्रयोजकत्वात्, अतिप्रसञ्जकत्वात्, वस्तुतो वेदानामप्रमाणत्वाच्च । न वा फलसाधनतांशे भ्रान्तिशून्यत्वम्, चौरादावतिप्रसक्तेः । न वा अनुशासनयोग्यत्वम्, केवल्यादावव्यापकत्वात्। नापि निखिलशब्दधर्मिकसाधुत्वप्रकारकयथार्थज्ञानवत्त्वम्, न्यूनवृत्तित्वात् किन्तु सम्यग्ज्ञानक्रियावत्त्वम् । वस्तुतस्तु अपुनर्बंधकादिकेवलिपर्यन्तावस्थानुगतधर्मवत्त्वमेव शिष्टत्वम। तच्च सम्यग्ज्ञानादिनोपलक्ष्यते। शिष्टाचारश्च शिष्टैर्धर्मबुद्ध्याऽनुष्ठीयमानोऽलौकिकव्यवहारः, तेन च न सम्यग्दृष्ट्यादिना क्रियमाणे परस्त्रीगमन-मांसभक्षणादावतिप्रसङ्गः। अत्र च शिष्टाचारेण विधिबोधितकर्तव्यतामनुमाय मङगले प्रवृत्तिरेव शिष्टाचारपरिपालनम्।
ननु मङ्गलं न कर्तव्यम्, निष्फलत्वात्। न च मङ्गलं कर्तव्यम् शिष्टाचारपरिपालनविषयत्वेन सफलत्वादिति वाच्यम् यतः शिष्टाचारपरिपालनं किं स्वतः प्रयोजनं परतः प्रयोजनं वा? इति विमलविकल्पयुगली प्रकृते समुपतिष्ठत इत्याशयेन शङ्कते-अथेति। प्रथमविकल्पं निषेधयति - न स्वतः प्रयोजनमिति। अन्यकामनाऽनधीन-स्ववृत्तित्वप्रकारक-कामनाविषयत्वरूपं स्वतः प्रयोजनत्वम् । तच्च सुखे दुःखाभावे वा वर्त्तते न त्वन्यत्र। अन्यतरत्वाभावादिति । ग्रन्थश्रवण के प्रति दत्तचित्तता ही प्रतिज्ञा का फल है।
शिष्ट पुरुषों का यह आचार है कि' ग्रन्थ के आरंभ में मङ्गल किया जाय । मङ्गल न करने से इस शिष्टाचार का भंग होता है। अतः इस शिष्टाचार के परिपालनार्थ ग्रंथकार श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र भगवंत को प्रणाम करते हैं। रागादि अंतरंग शत्रुओ के उपर विजय पानेवाले जिन कहे जाते हैं, जो सामान्यकेवली भगवंत होते हैं। सामान्यकेवलीओं की अपेक्षा श्रीतीर्थंकर भगवंत अष्टमहाप्रातिहार्य, ३४ अतिशय, वाणी के ३५ गुण, तीर्थस्थापना, मेरुशिखर पर जन्माभिषेक आदि परम ऐश्वर्य के स्वामी होने से जिनेन्द्र कहे जाते हैं। श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र को, जो इस अवसर्पिणी काल के २३ वें महाप्रभावक तीर्थंकर है, प्रकरणकार प्रणाम करते हैं। इस तरह मङ्गलाचरण से शिष्टाचारपरिपालन हुआ। ग्रंथकार ने 'नत्वा' पदप्रयोग के स्थान में प्रणम्य पद का प्रयोग किया है, जिससे नमस्कार में प्रकर्ष का बोध होता है। मतलब यह है कि यहाँ विशिष्ट शुभ अध्यवसाययुक्त कराञ्जलि-शिरोनमनशब्दोच्चारणरूप प्रकृष्ट नमस्कार इष्ट है। 'प्रणम्य' पदप्रयोग से दूसरा यह भी ज्ञात होता है कि यह प्रणाम ग्रंथकार को ग्रन्थप्रारंभ के पूर्व में इष्ट है, क्योंकि यह प्रणाम समुचितदेवतानमस्काररूप होने से मङ्गलात्मक है और मङ्गल ग्रन्थ के प्रारम्भ के पूर्व में इष्ट होता है। किसी भी कार्य में प्रवृत्ति करने के पूर्व में अपने इष्टदेव को नमस्कार करना - यह शिष्टों का आचार होने से मङ्गलाचरण से शिष्टाचार का परिपालन भी संपन्न हुआ है। जैसे 'भोजनेन तृप्तो भवति' वाक्य से भोजन में तृप्ति की प्रयोजकता का और तृप्ति में भोजनप्रयोज्यता का ज्ञान होता है। अर्थात् 'भोजन का प्रयोजन तृप्ति है' ऐसा बोध होता है वैसे यहाँ 'तेन शिष्टाचारः परिपालितो भवति' इस वाक्य से मङ्गल में शिष्टाचारपरिपालन की प्रयोजकता और शिष्टाचारपरिपालन में मङ्गलप्रयोज्यता ज्ञात होती है। अतः मङ्गल का प्रयोजन शिष्टाचारपालन है, यह ज्ञात होता है। शिष्टाचारपरिपालनरूप प्रयोजन की सिद्धि के लिए यहाँ मङ्गल का उपादान किया गया है।
* शिष्टाचारपरिपालन मङगल का प्रयोजन नहीं है- पूर्वपक्ष * 'शिष्टाचारपरिपालनार्थ मङ्गल का उपादान किया गया है' ऐसी आपकी बात निराधार है। सभी कामनाएँ सप्रयोजन होती है, निष्प्रयोजन नहीं। प्रस्तुत में शिष्टाचारपरिपालन की कामना ग्रंथकार को क्यों हुई? इस प्रश्न के आप दो उत्तर दे सकते हैं किक्योंकि शिष्टाचारपरिपालन स्वतः प्रयोजन है या तो परतः प्रयोजन है। स्वतः प्रयोजन का अर्थ है जिसका ज्ञान होने पर उसकी कामना अन्य कामना के अधीन न हो वह । यदि वस्तु का ज्ञान होने पर 'यह मुझे मिले' ऐसी कामना अन्य किसी कामना के अधीन हो, तब इस वस्तु को परतः प्रयोजन जानना चाहिए। जैसे कि - आदमी धनप्राप्ति की कामना करता है, मगर धन की कामना सुख