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६ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१
० शास्त्रप्रकरणभेदनिरूपणम् ० णस्स दोसो तो मोणं कायव्वं? आयारिओ भणइ 'मोणमवि अणुवायेण कुणमाणस्स दोसो भवइ त्ति'। (दश. जिन. चू. पृ. २४२) विशुद्ध्या तु सुचिरं भाषमाणस्याऽपि धर्मदानादिना गुण एव। तदिदमुक्तं 'वयणविभत्तिकुसलो वओगयं बहुविहं वियाणंतो। दिवसंपि भासमाणो तहा वि वयगुत्तयं पत्तोत्ति'। (दश. वै. अ. ७. नि. गा. २९) ततो भाषाविशुद्ध्यर्थं रहस्यपदाङ्किततया 'चिकीर्षिताष्टोत्तरशतग्रन्थान्तर्गतप्रमारहस्य-नयरहस्य-स्याद्वादरहस्या-दिसजातीय' प्रकरणमिदमारभ्यते। तस्य चेयमादिगाथा रहस्यपदाङिकतानि नयरहस्य-स्याद्वादरहस्योपदेशरहस्याख्यानि च प्रकरणानि उपलभ्यन्ते। रहस्यपदविभूषितानि शेषप्रकरणानि सांप्रतं नोपलभ्यन्ते। प्रकरणमिति। ननु शास्त्रप्रकरणयोः को भेदः? उच्यते, एकप्रयोजनोपनिबद्धबहुविधार्थप्रतिपादकः स्वतंत्रो ग्रन्थः शास्त्रमित्युच्यते। प्रकरणञ्च शास्त्रैकदेशसम्बद्धार्थप्रतिपादको ग्रन्थांशः । तदुक्तं पराशरपुराणे शास्त्रैकदेशसम्बद्धं शास्त्रकार्यान्तरे स्थितम् । आहुः प्रकरणं नाम ग्रन्थभेदं विपश्चितः ।। (प.पु.) सर्वार्थसाधनम्'। मूक रहने पर वाग्गुप्ति का तो पालन ही होगा'। इस उल्झन को हटाते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि - 'अनुपाय से मौन का पालन करने से भी दोष होता है। अनुपाय का अर्थ है विपरीत उपाय । अर्थात् जहाँ सम्यक् वचनप्रयोग चारित्र का उपायभूत है, वहाँ मौन रहना वह अनुपाय = विपरीत उपाय है। इससे यह स्पष्ट होता है कि - सम्यक् वचनप्रयोग के अज्ञान से ऐसे अवसर पर मौन का पालन करना भी असत् वचनप्रयोग की तरह दोषरूप ही है। यहाँ जिन दोषो की संभावना है, उनका निरूपण विवरणकार ने 'प्रत्युत......' (देखिये पृ. ५. पं. २) इत्यादिरूप से पूर्व में किया ही है। चूर्णिकार के वचन से भी यह सिद्ध होता है कि वाग्गुप्ति के अनधिकारी का मौन गुणरूप नहीं है, किन्तु दोषरूप है। जो वचनविभाग का सम्यक् ज्ञाता है, वह आगमोक्त विधि के अनुसार प्रयोजन उपस्थित होने पर यदि घंटों तक भाषाविशुद्धि से व्याख्यानादि करे तो भी कोई दोष नहीं है, मगर धर्मोपदेश आदि विनियोग से पुण्यानुबंधी पुण्य, निर्जरा आदिस्वरूप गुण की ही प्राप्ति है, क्योंकि अनेक भव्य जीवों के सम्यग् दर्शन आदि की प्राप्ति, स्थिरता, निर्मलता, वृद्धि आदि में उसका वचन निमित्त होता है। विवरण में जो 'अपि' शब्द (देखिये पृ. ५. पं. ३) है, वह अल्पकालीन वचनप्रयोग के संग्रह के लिए है। अर्थात् भाषाविशुद्धि से चिर काल तक बोलने पर भी दोष नहीं है, किन्तु गुण ही है, तब भाषाविशुद्धि से अल्प काल तक बोलने पर तो उसका वचन अवश्य गुणकारक ही होगा, दोषकारक नहीं। महनीय चरम श्रुतकेवली श्रीभद्रबाहुस्वामी ने दशवैकालिकनियुक्ति में उक्त बात का समर्थन किया है कि - 'जो सम्यक् वचनविभाग में निष्णात है और उत्सर्ग-अपवाद-सावद्य-निरवद्य आदि वचन के अनेक भेदों का जो ज्ञाता है, वह दिन भर बोलता रहे तो भी वाग्गुप्तिसंपन्न ही है'। उक्त शास्त्रवचन का आशय यह है कि - "किसको, कहाँ, कब, किसके साथ, किस उद्देश से, किस ढंग से, कितने और किन शब्दों का प्रयोग करना जिससे जिनाज्ञा की विराधना न हो, स्वपर का कल्याण हो' यह ज्ञान जिसको है, वह आगम के तात्पर्य के अनुसार भाषाविशुद्धि से अपने अभीष्ट अर्थ का प्रतिपादन कर के जिनाज्ञा का पालन ही करता है। अतः वह वाग्गुप्त ही कहा जायेगा। विवेकशून्य मौन का जिनशासन में कोई महत्त्व नहीं है।
१ आह यदि भाषमाणस्य दोषस्तर्हि मौनं कर्तव्यम्? आचार्यो भणति-मौनमप्यनुपायेन कुर्वाणस्य दोषो भवतीति ।। २ वचनविभक्तिकुशलो वाग्गतं बहुविधं विजानानः । दिवसमपि भाषमाणः तथापि वाग्गुप्ततां प्राप्तः।।
३ यहाँ इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि उपाध्यायजी महाराज ने 'कृताष्टोत्तरशतग्रन्थ' इत्यादि न कह कर 'चिकीर्षिताष्टोत्तरशत...' इत्यादिरूप से कथन किया है। इससे यह ज्ञात होता है कि भाषारहस्यग्रंथ के सर्जन तक रहस्यपदांकित १०८ ग्रन्थों का सर्जन हो चूका नहीं था, मगर प्रमारहस्य आदि कतिपय ग्रंथों का सर्जन हो चूका था। जिनका ग्रंथकार ने यहाँ निर्देश किया है। भाषारहस्य के बाद संभवतः उपदेशरहस्य आदि ग्रंथों का भी ग्रंथकार ने निर्माण किया होगा मगर रहस्यपद से विभूषित १०८ ग्रन्थरत्नों का सर्जन करने की ग्रन्थकार की ख्वाहीश पूर्ण हो चूकी होगी या नहीं? यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वर्तमान में रहस्यपदालंकृत नयरहस्य, स्याद्वादरहस्य, उपदेशरहस्य और प्रस्तुत भाषारहस्य ग्रंथ ही उपलब्ध होते हैं। महनीय महोपाध्यायजी की रहस्यपदघटित १०८ ग्रंथरत्नों के सर्जन की इच्छा अपूर्ण रह गई होगी - यह मानने के लिए दिल तैयार नहीं होता है, क्योंकि उन्होंने प्रस्तुत ग्रंथ में प्रमारहस्य, वादरहस्य (देखिए श्लोक ३२ की टीका) ग्रंथ का उल्लेख किया है, जो वर्तमान में उपलब्ध नहीं होते हैं। संभव है, ऐसे ही रहस्यपदालंकृत अन्य ग्रंथों का भी हमारे दुर्भाग्य से लोप हो गया हो, या किसी भांडागार में सुरक्षित भी पडा हो - यह सांप्रत काल में एक खोज का विषय है।
४ कप्रतौ 'नयरहस्यपदं' नास्ति ।