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* मूलग्रन्थस्य मङ्गलाचरणम् * 'पणमिय पासजिणिंदं भासरहस्सं समासओ वुच्छं। जं नाऊण सुविहिआ चरणविसोहिं उवलहन्ति ।।१।।
अहं भाषारहस्यं समासतः = शब्दसंक्षेपतो वक्ष्य इति अन्वयः। इयं च प्रतिज्ञा, सा च तदर्थिनां शिष्याणामवधानफलिका। किं एतावत्पर्यन्तं मूलग्रन्थस्याऽवतरणिका कृता प्रकरणकारेण। अवतरणिका च ग्रन्थप्रस्तावार्थं प्रथममुपोद्घातः, यद्वा अमुख्यार्थप्रतिपादकत्वे सति मुख्यार्थप्रवर्तकत्वं, यद्वा वक्तव्यार्थविषयकजिज्ञासोत्थापकत्वम्, यद्वा प्रतिपाद्यमर्थं बुद्धौ सगृह्य प्रागेव तदर्थमर्थान्तरवर्णनमित्यन्यदेतत्।
'ननु अभिधेयसम्बन्धप्रयोजनवत्प्रकरणं कर्तव्यम्, अन्यथा ज्वरप्रसरापसारिशेषशिरोरत्नोपदेशवदशक्यानुष्ठानं, 'दशदाडिमानि षडपूपाकुण्डमजाजिनं' इतिवत् सम्बन्धवन्ध्यं, जननीकुचपरिपीडनोपदेशवदनभिमतप्रयोजनं च स्यात् । तत्र प्रेक्षाचक्षुषः क्षोदिष्टामपि प्रवृत्तिं न प्रारभन्ते। तदिह प्रकरणे निखिलं सिद्धम्, मूलप्रकरणमङ्गलगाथायां द्वितीयपादोत्तरार्धाभ्यामाद्यन्तयोर्ग्रहणे तन्मध्यपतितग्रहणस्य न्यायप्राप्तत्वात ।
स्वयमेव प्रकरणकारः प्रथमगाथां विवृणोति-अहमिति । समासत इति । मा भूत् कस्यचित् प्रकृते द्वयादिपदानामेकपदतासम्पादको वृत्तिविशेषः समास इति बोधः। अतो व्याचष्टे - शब्दसंक्षेपत इति। 'शब्द' इत्यनेन अर्थसंक्षेपव्यवच्छेदः कृतः । अस्य प्रकरणरूपत्वेन संक्षेपकथनमभिमतं विस्तरतस्तु प्रज्ञापनादशवैकालिकादिशास्त्रप्रतिपादितत्वात् । अन्वय इति । परस्परसम्बद्धार्थबोधानुकूलशब्दयोजनम् । प्रतिज्ञेति। प्रकृते च प्रतिज्ञा नाम न साध्यविशिष्टपक्षविषयकबोधजनकवचनं किन्तूत्तरकाले स्वकर्तव्यत्वेन निर्देशो यथा इदं करिष्यामीत्याकारकवचनम् । अत्र च 'भाषारहस्यं समासतो वक्ष्य' इतिवचनं प्रतिज्ञा। अवधानफलिकेति। श्रोतृणां श्रवणाभिमुखीकरणमवधानम्, विषयान्तरसंचाराभाव इत्यन्ये। चित्तैकाग्र्यमिति परे। प्रकर्षेणेति कराञ्जलि-शिरोनमन-शब्दोच्चारणरूपेण विशिष्टतरशुभाध्यवसाययुक्तेनेत्यर्थः । समुचितदेवतेति। अभीष्टदेवता। तदुक्तं हारिभद्रीयावश्यकवृत्तिटिप्पणे 'नमस्कारोचितश्च देवताविशेषस्त्रिधा
__ (यह प्रकरण मोक्ष का प्रयोजक है) ततो. इति । उपर्युक्त चर्चा से यह सिद्ध हुआ कि मुमुक्षु के लिए मोक्ष के प्रधान कारण चारित्र के उपकारक भाषासमिति और वाग्गुप्ति जिसके अधीन है, वह भाषाविशुद्धि अवश्य उपादेय है, क्योंकि कार्य की सिद्धि के लिए कार्य के उपायों में प्रवृत्ति आवश्यक है तथा उपायों में प्रवृत्ति करने के लिए उपायों का ज्ञान भी अनिवार्य है। उपाध्यायजी महाराजा शिष्यों को भाषाविशुद्धि का ज्ञान कराने के लिए प्रस्तुत प्रकरण का प्रारंभ कर रहे हैं। इससे प्रकरणकार के साक्षात् प्रयोजन का निर्देश हुआ है। - 'परोपकाराय सतां विभूतयः' 'महापुरुषाणां प्रवृत्तिः परोपकारव्याप्ता भवति' ये दो उक्तियाँ यहाँ स्मृतिपट पर आती हैं। उपाध्यायजी महाराज को 'रहस्य पद से अंकित १०८ प्रकरणग्रन्थरत्नों का सर्जन करने की तीव्र तमन्ना थी। उन्होंने रहस्यपदांकित १०८ ग्रन्थरत्नों के सर्जन की प्रतिज्ञा की थी। यह प्रतिज्ञा सिर्फ मनोरथ रूप न थी, बल्कि पुरुषार्थयुक्त थी, सक्रिय थी। उन्होंने इस प्रकरण के प्रारंभ के पूर्व में प्रमारहस्य, नयरहस्य, स्याद्वादरहस्य आदि अनेक रहस्यपदसुशोभित ग्रंन्थमंजुषाओं का सर्जन कर दिया था। प्रस्तुत प्रकरण भी प्रमारहस्य आदि रहस्यपदविभूषित ग्रन्थों की तरह रहस्यपद से घटित है, जो कि 'भाषारहस्य' नाम से ही ज्ञात होता है। हाथ कंगन को आरसी क्या? प्रकरणकार अपने टंकशाली वचनों से गागर में सागर भरते हुए प्रकरणग्रन्थ का प्रारंभ करते हैं। 'पणमिय' इत्यादिरूप से जो प्रथम मंगलगाथा है, इसका अर्थ निम्नोक्त है।
श्लोकार्थ :- श्री पार्श्वजिनेश्वर को प्रणाम कर के उस भाषारहस्य (प्रकरण) को मैं संक्षेप से कहूँगा, जिसको जानकर सुविहित जीवों चारित्र की विशुद्धि को प्राप्त करते हैं।१।
__ (प्रतिज्ञा की आवश्यकता) विवरणार्थ :- मैं भाषारहस्य को संक्षेप से कहूँगा - ऐसा यहाँ अन्वय-शब्दों का सम्बन्ध अभिप्रेत हैं। यह ग्रन्थ प्रकरणात्मक होने से संक्षिप्तरूप से भाषारहस्यनिरूपण करने की ग्रंथकार ने प्रतिज्ञा की है। भाषाविषयक रहस्य के संक्षेप में जिज्ञासु शिष्यों को ग्रन्थश्रवण के प्रति अभिमुख करने के लिए यह प्रतिज्ञानिर्देश किया गया है, क्योंकि ग्रन्थप्रतिपाद्य विषय के अर्थी शिष्यों की
१ प्रणम्य पार्श्वजिनेन्द्रं भाषारहस्यं समासतो वक्ष्ये । यज्ज्ञात्वा सुविहिताश्चरणविशोधिमुपलभन्ते ।।१।।