________________
* अनुपायेन कार्यसिद्धिविरहा *
तदुक्तं -'वयणविभत्तिअकुसलो वओगयं बहुविहं अवियाणंतो। जइ वि न भासइ किंचि न चेव वयगुत्तयं पत्तो त्ति ।। (दश. अ.७. नि. गा. २९०) प्रत्युतावाग्गुप्तस्य वाग्गुप्तत्वाभिमानादिना दोष एव । तदिदमाहोक्तगाथापातनिकायाञ्चूर्णिकारः 'आह जइ भासमा
प्रकृते नियुक्तिवचनसंवादं प्रदर्शयति - 'वयण'मित्यादि। अत्र च 'वचनविभक्त्यकुशलः = वाच्येतरप्रकारानभिज्ञः 'वाग्गतं बहुविधं = उत्सर्गादिभेदभिन्नं अजानानो यद्यपि न भाषते किञ्चित् = मौनेनैवास्ते, न चैव वाग्गुप्ततां प्राप्तः तथाप्यसौ अवाग्गुप्त एवेति' इति हारिभद्रव्याख्यानम् । अनिष्णातस्य मौनाश्रयणे न केवलं गुणाभाव एवापि तु दोषोऽपीत्याह - प्रत्युतेति। वैपरीत्यभावार्थोऽनेनोक्तः । वाग्गुप्तत्वाभिमानादिनेति । अभिमानत्वं नाम आत्मन्युत्कर्षारोपत्वम् । वस्तुगत्याऽवाग्गुप्तत्वेऽपि स्वस्मिन् वाग्गुप्तत्वगुणारोपादिनेत्यर्थः । आदिपदेन चारित्राङ्गभूतावग्रहयाचनेच्छाकारादिसामाचारीपालन-स्वाध्याय-पृच्छादिसम्पादनाभावस्य दम्भादेश्च ग्रहणं द्रष्टव्यम्। दोष एवेति । एवकारेण गुणव्यवच्छेदः कृतः भाषागुणदोषाभिज्ञस्यैव तत्तद्गुणलाभः सम्भवति । चूर्णिकार इति । श्रीजिनदासमहत्तरगणी। अणुवायेण = उपायविपर्ययेण, उपायश्चावसरोचितसम्यग्वचनप्रयोगादिरूपः। तदुक्तं धर्मबिन्दौ 'अनुपायात्तु साध्यस्य सिद्धिं नेच्छन्ति पंडिताः । (ध. बि. ४ । २३) तथा च रत्नत्रयोपष्टम्भकसम्यग्वचनप्रयोगाद्यर्थसम्यग्वचनविभागज्ञानमावश्यकमेवेति आचार्यस्योत्तरदाने तात्पर्यमिति भावः । विशुद्ध्येति। प्रधानभावशुद्धिहेतुभूतया भाषाविशुद्ध्या। भाषमाणस्यापीति। अपिशब्देन अल्पं भाषमाणस्य समुच्चयः कृतः। धर्मदानादिनेति। आदिपदात् स्वाध्यायपरावर्तनाध्यापनवादजय-प्रवचनप्रभावना-जिनभक्त्यादेः परिग्रहः । गुण एवेति। एवकारेण दोषव्यवच्छेदः क्रियते। प्रकृते गुणः न निर्गुणत्वे निष्क्रियत्वे वा सति सामान्यवान्, न वा प्रमाया असाधारणकारणम् किन्तु कर्मनिर्जरादिस्वरूप इति ध्येयम् । पुनरपि नियुक्तिवचनसंवादं प्रदर्शयति वयणत्ति सुगमा गाथा | नवरं प्राचीनतरचूर्णी 'दिवसमवि भासमाणो अभासमाणो व वयगुत्तो' (द. वै. नि. अग. चू. पृ. १६४) इत्येवं नियुक्तिवचनोत्तरार्धं वर्तते इति ध्येयम्।। ___ भाषाविशुद्ध्यर्थमिति भाषाविशुद्धिप्रतिपादनार्थम् । प्रमारहस्येति। साम्प्रतं नेदं प्रकरणमुपलभ्यते। प्रकृतं प्रकरणं
* वचनविभाग में अकुशल पुरुष का मौन अकिंचित्कर * तदुक्तं. इति । व्याख्याकार यहाँ चरम श्रुतकेवली श्रीभद्रबाहुस्वामीकृत दशवैकालिकनियुक्ति का संवाद बता रहे हैं जिसका अर्थ यह है कि - 'जो वचनविभाग में अकुशल है और वचन के अनेक भेदों को नहीं जानता है, वह चाहे कुछ भी न बोले फिर भी वचनगुप्ति को प्राप्त नहीं करता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि 'यह वचन सावध है और यह वचन निरवद्य है, 'यह सत्य है
और यह असत्य है' इत्यादिरूप वचनविभाग में जो अनिष्णात है उसको मौन मात्र से वाग्गुप्ति की प्राप्ति नहीं होती है। वचनविभाग में अनिपुण मनुष्य मौन रहने पर सिर्फ वाग्गुप्ति से रहित है इतना ही नहीं, मगर स्वयं वाग्गुप्ति से रहित होने पर भी बहिर्वृत्त्या मौन के पालन से उसको "मैं वाग्गुप्त हूँ" ऐसा अभिमान भी होगा। इस तरह वह चारित्र की आराधना के स्थान में कषाय की आराधना करता रहेगा। 'अभिमानादिना' पद में जो 'आदि' शब्द है उससे अन्य दोषों की भी सूचना मिलती है। जैसे की उत्सर्ग, अपवाद, सत्य, असत्य आदि वचनविभाग से अज्ञात साधु भगवंत गृहस्थ आदि से अवग्रह की याचना, इच्छाकार इत्यादि सामाचारी का पालन, स्वाध्याय आदि में गुरु भगवंत से पृच्छा-विचारविनिमय आदि अनेकविध चारित्र के अंगों के पालन में असमर्थ हो जायेंगे। फलतः चारित्र मलिन या नष्ट होगा। इसलिए मुमुक्षु के लिए मोक्ष के प्रधान कारण चारित्र के अंगभूत भाषासमिति और वचनगुप्ति जिसके अधीन है ऐसी भाषाविशुद्धि का ज्ञान एवं पालन होना आवश्यक है।
(अवसरोचित वचनप्रयोग न करने पर दोष) तदिदमाह. इति । उपर्युक्त नियुक्ति गाथा की अवतरणिका को करते हुए चूर्णिकार श्रीमद् जिनदासगणी महत्तर शिष्य की शंका का समाधान करते हैं। वहाँ शिष्य की शंका इस तरह से बताई गई है कि - 'अगर सम्यकवचनप्रयोग में अकुशल पुरुष बोलेगा तो भाषासमिति और वचनगुप्ति की विराधना आदि दोष हैं, तो मौन का आश्रय करना चाहिए। कहा भी गया है 'मौनं
१ वचनविभक्त्यकुशलो वाग्गतं बहुविधमजानानः । यद्यपि न भाषते किञ्चिन्न चैव वाग्गुप्ततां प्राप्तः।।