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* वचनविशुद्धेरवश्यमुपादेयत्वम् *
इह खलु निःश्रेयसार्थिनां भाषाविशुद्धिरवश्यमादेया, वाक्समितिगुप्त्योश्च तदधीनत्वात् तयोश्च चारित्राङ्गत्वात्, तस्य च परमनिः श्रेयसहेतुत्वादिति। न च वचनविभक्त्यकुशलस्य मौनमात्रादेव वाग्गुप्तिसिद्धेर्गुणः; सर्वथा मौने व्यवहारोच्छेदाद् अनिष्णा
उपोद्घातसङ्गतिं प्रदर्शयति - इहेति प्रवचने इत्यर्थः। भाषाविशुद्धिरिति। अत्र प्रधानभावशुद्धिनिमित्तीभूता वाक्यशुद्धिाह्या। तदुक्तं भगवता भद्रबाहुस्वामिना जं वक्कं वयमाणस्स संजमो सुज्झई न पुण हिंसा। न य अत्तकलुसभावो तेण इहं वक्कसुद्धित्ति । (द. वै. अ. ७ नि. श्लो. २८८) तदधीनत्वात् = भाषाविशुद्ध्यधीनत्वात् । प्रयोगस्त्वेवं भाषाविशुद्धिः निःश्रेयसार्युपादेया वाक्समितिगुप्त्युपजीव्यत्वात् गुरूपदेशवत् । वाक्समितिगुप्त्योः परमनि:श्रेयसहेतुचारित्राङ्गत्वं तु प्रसिद्धमेव । तदेव प्रदर्शयति तयोश्च चारित्राङ्गत्वादिति। अत्राङ्गत्वं च न घटकत्वम्, ताभ्यामृतेऽपि तत्सत्त्वात् किन्तूपकारकत्वम्। ततो भाषासमितिगुप्त्योश्च चारित्रोपकारकत्वादित्यर्थः । परमनिःश्रेयसहेतुत्वादिति। अत्र कर्मधारयसमासानन्तरं तत्पुरुषसमासो न कर्तव्यः; कृत्स्नकर्मक्षयात्मके निःश्रेयसेऽपरमत्वाभावेन व्यावाभावात्परमपदस्य व्यर्थविशेषणत्वापत्तेः, किन्तु निःश्रेयसस्य हेतुरिति निःश्रेयसहेतुः परमश्चासौ निःश्रेयसहेतुश्चेति परमनिःश्रेयसहेतुरित्येवं षष्ठीतत्पुरुषोत्तरं कर्मधारयस्यैव सम्यक्त्वम ज्ञानादीतरकारणापेक्षया निःश्रेयसं प्रति चारित्रस्य प्रधानत्वं तु महाभाष्यादौ प्रसिद्धमेव । कर जो शास्त्र में प्रवर्तन कराता है, वह अनुबन्ध कहा जाता है। ग्रंथ के विषय का ज्ञान होने पर इस विषय के अर्थी श्रोता एवं पाठक इस शास्त्र में प्रवृति करते हैं। अतः अभिधेय अनुबन्धरूप कहा जाता है। विषय, सम्बन्ध, अधिकारी और प्रयोजन के भेद से अनुबन्ध के चार भेद हैं। यहाँ विषयरूप अनुबन्ध का कंठतः ग्रहण किया गया है, शेष तीन अनुबन्ध सामर्थ्यगम्य हैं। जैसे कि अपने वाच्यार्थ के साथ इस विवरण का अभिधेय-अभिधायकभाव सम्बन्ध है। जो भाषाविषयक रहस्यार्थ का जिज्ञासु होगा वोही यहाँ अधिकारी है - यह बात भी अर्थतः प्रतीत होती है। तथा व्याख्याकार का अनंतर प्रयोजन है, शिष्यों पर उपकार और श्रोता पाठक का अनंतर=साक्षात् प्रयोजन है भाषाविषयक ऐदम्पर्य ज्ञान की प्राप्ति। दोनों का परंपरप्रयोजन है मोक्ष की प्राप्ति। यह बात भी सामर्थ्यगम्य हैं। यद्यपि यहाँ विवरणकार ने शब्दतः सिर्फ अभिधेयरूप अनुबन्ध का ही ग्रहण किया है तथापि 'तद्ग्रहणे च तत्सजातीयोऽपि गृह्यते' न्याय से अनुबन्ध सजातीय होने से सम्बन्ध, अधिकारी और प्रयोजन का भी अर्थतः ग्रहण किया गया है - ऐसा समझा जाता है। इस तरह विवरण ग्रंथ के आद्य श्लोक से मंगल, प्रतिज्ञा और अनुबन्धचतुष्क का प्रतिपादन किया गया है।
शंकाः- यद्यपि प्रस्तुत प्रकरण में प्रकरणकर्ता और श्रोता-पाठकों को क्रमशः शिष्योपकारादि तथा प्रकरणाभिधेयार्थज्ञानादिस्वरूप अनंतर प्रयोजन की सिद्धि संभवित है मगर मोक्षरूप परंपर प्रयोजन की सिद्धि इससे कैसे होगी? मोक्ष की प्राप्ति सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के अधीन होने से यहाँ रत्नत्रय का निरूपण करना उचित महसूस होता है, भाषारहस्य का नहीं। अतः इस प्रकरण का आरंभ अनुचित है।
* प्रकरण का उपोद्घात * समाधान:- इह खलु. इति । आपकी यह शंका नामुनासिब है। इसका कारण यह है कि स्व-पर को मोक्ष की प्राप्ति के लिए जैसे रत्नत्रयी की प्ररूपणा, ज्ञान एवं इसका पालन आवश्यक है, वैसे ही रत्नत्रय के उपकारक और वह उपकारक जिसके अधीन हो, इन दोनों का ज्ञान एवं पालन के लिए उन दोनों का भी प्ररूपण आवश्यक प्रतीत होता है। मोक्ष का प्रधान हेतु चारित्र है और उसके उपकारकरूप से ५ समिति और ३ गुप्ति प्रसिद्ध हैं, जिनमें भाषासमिति और वचनगुप्ति भी अंतःप्रविष्ट है। भाषासमिति और वचनगुप्ति भाषाविशुद्धि के अधीन है। तदर्थ भाषाविशुद्धि का प्रतिपादन भी आवश्यक है। भाषाविशुद्धि भाषाविशुद्धि के ज्ञान पर अवलंबित है तथा प्रस्तुत प्रकरण भाषाविशुद्धि का प्रतिपादक होने से भाषाविशुद्धिविषयक ज्ञान का, जो कि मोक्ष के प्रधानकारणभूत चारित्र के अंगरूप भाषासमिति-गुप्ति की नियामक भाषाविशुद्धि की इच्छा का जनक है, कारण है। अतः यह प्रकरण भी परंपरा से मोक्ष का कारण प्रयोजक है। इसी सबब इस प्रकरण का प्रारंभ भी उचित ही है।
शंकाः- न च वचन. इति। "मोक्ष का प्रधान कारण चारित्र है और उसके अंगभूत भाषासमिति और वचनगुप्ति है" ऐसा जो आपने कहा है यह तो ठीक है, मगर "भाषासमिति और वचनगुप्ति भाषाविशुद्धि के अधीन है", ऐसा जो कहा है वह समीचीन नहीं है। यद्यपि भाषासमिति और प्रवृत्तिरूप वाग्गुप्ति के पालन में 'यह वचन सावध है ओर यह वचन निरवद्य है' इत्यादिरूप