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भाषा रहस्यप्रकरणे स्त. १
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तस्य गुप्त्यनधिकारित्वाच्च ।
ननु सावद्यनिरवद्य-वाच्यावाच्यौत्सर्गिकापवादिक-सत्यासत्यादिवचनविभागाकुशलस्य प्रवृत्तिस्वरूपभाषासमितिगुप्तिविषयिण्याराधना मास्तु, परं मौनमात्रसमाश्रयणान्निवृत्तिरूपवाग्गुप्तिविषयिणी आराधना तु स्यादेव तत्र तादृशवचनविभागकौशल्यस्याप्रयोजकत्वादित्याशयेन मुग्धः शङ्कते न चेति । समाधत्ते - सर्वथति। संज्ञादीन्यपि परिहृत्येत्यर्थः। अक्षिनिकोच - भ्रूभङ्ग-हस्तप्रसारणादिभिः विकारैरर्थं प्रत्याययतस्तु वाग्गुप्तिरपि नास्ति तदुक्तं योगशास्त्रे-संज्ञादिपरिहारेण यन्मौनस्यावलम्बनं । वाग्वृत्तेः संवृत्तिर्वा या सा वाग्गुप्तिरिहोच्यते ।। (यो.शा. १ । ४२ ) व्यवहारोच्छेदादिति । ग्रहणासेवनशिक्षास्मारणा-वारणा-चोदना-प्रतिचोदना-जिनवचनोपदेशादिस्वरूपव्यवहारोच्छेदादि
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त्यर्थः। इदमुपलक्षणं तीर्थोच्छेदादेरपि । गुप्त्यनधिकारित्वाच्चेति । प्रकरणबलेन वाग्गुप्त्यधिकारित्वाभावाच्चेत्यर्थः। अधिकारित्वं चात्र न तत्तत्कर्मजन्यफलार्थित्वं, न वा गौणमुख्योभयप्रयोजनप्राप्तिकामनावत्त्वं न वा ग्रन्थप्रतिपाद्यार्थविषयकज्ञानधारणशक्तत्वं, अनुपयोगित्वादतिप्रसञ्जकत्वाच्च, किन्तु तत्तत्कर्मोचितफललाभसामर्थ्यवत्त्वम् । तथा च सावद्यनिरवद्यादिवचनविभागानिष्णातस्य वाग्गुप्तिजन्यफलप्राप्तिसामर्थ्याभाववत्त्वमिति फलितम् । न हि तदनधिकारणो मौनमात्रसमाश्रयणादेव वाग्गुप्तिफलप्राप्तिः सम्भवति, अन्यथा एकेन्द्रियाणामपि तत्प्रसक्तेः । तदुक्तं प्रकरणकृतैव ज्ञानसारे 'सुलभं वागनुच्चारं मौनमेकेन्द्रियेष्वपि ।। (ज्ञा. सा. १३ । ७) इति । तदुक्तं तेजोबिन्दूपनिषद्यपि 'गिरा मौनं तु बालानामयुक्तं ब्रह्मवादिनाम् । (ते. उप. १ । २२) ततश्च वाग्गुप्तिफलं प्रति न द्रव्यमौनं प्रयोजकं अपि तु भावमौनम्, तच्च वचनविभागनिपुणस्यैव नेतरस्येति फलितम् ।
० विवेकविकलमौनसमाश्रयणमयुक्तम् O
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वचनविभाग का ज्ञान एवं कुशलता आवश्यक है, मगर निवृत्तिरूप वचनगुप्ति में तथाविध वचनविभागकुशलता आवश्यक नहीं है। वचनविभाग में अकुशल पुरुष तो मौन रहने से ही निवृत्तिस्वरूप वचनगुप्ति का पालन कर सकता है। इसके लिए भाषाविशुद्धि का ज्ञान या वचनविभागकुशलता अनावश्यक है। अतः 'परंपरा से मोक्ष के कारणस्वरूप भाषाविशुद्धि का प्रतिपादक होने से यह प्रकरण भी परंपरा से मोक्ष का कारण है। अतः इस प्रकरण का आरंभ युक्त ही है' ऐसा आपका कथन समीचीन नहीं है। मोक्षार्थी के लिए यह प्रकरण उपादेय नहीं है। मोक्ष का अप्रयोजक होने से इस प्रकरण का प्रारंभ भी अयुक्त ही है।
* वचनविभाग में निष्णात ही वाग्गुप्ति का अधिकारी *
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समाधान:- सर्वथा. इति। आपका यह वक्तव्य मुग्ध पुरुष को रुचिकर बनेगा, प्राज्ञ पुरुष को नहीं । आपका यह कथन कि - 'वचनविभाग में अनिष्णात पुरुष मौन का पालन करने से ही चारित्र के अंगभूत निवृत्तिरूप वाग्गुप्ति की उपासना करेगा' - हमारे दो विकल्पों से ग्रस्त होने से अस्वीकार्य है। दो विकल्प ये हैं कि दीक्षाग्रहण से जीवनपर्यंत क्या सब मुनि भगवंतों मौन का पालन करेंगे या कतिपय मुनि भगवंत, जो वचनविभाग में अकुशल है? यदि आप कहेंगे कि 'दीक्षाग्रहण से जीवनपर्यंत सब मुनिभगवंत मौन का पालन करेंगे तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा होने पर शिष्य को ग्रहणशिक्षा आसेवनशिक्षा, शिष्य की स्खलना होने पर सारणा वारणा आदि, भव्य जीवों को धर्मोपदेश आदि सब व्यवहार का उच्छेद हो जायेगा। अंत में तीर्थोच्छेद भी हो जायेगा । ओह! तीर्थ के उच्छेद की बात ही कहाँ ? सर्वथा मौन का आलंबन लेने पर तो तीर्थ की उत्पत्ति ही नहीं हो सकेगी। यह तो किसीको भी इष्ट नहीं है और प्रत्यक्षादि प्रमाणों से विरुद्ध भी है। अतः प्रथम विकल्प का स्वीकार करना मुनासिब नहीं है। यदि आप दूसरे विकल्प का स्वीकार करेंगे कि 'यथार्थ वचनविभाग में अकुशल कतिपय मुनि भगवंत दीक्षा के बाद जीवनपर्यन्त मौन को धारण करेंगे तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो वचनविभाग में निष्णात नहीं है, वह तो वाग्गुप्ति का अधिकारी ही नहीं
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है । यह एक नियम है कि तत्तत्कार्यों का जो अधिकारी होता है, उसे ही तत्तत् कार्यों का प्रामाणिक फल प्राप्त होता है, अनधिकारी मनुष्य को नहीं । यदि वाग्गुप्ति के अनधिकारी को भी व्यवहारतः मौनमात्र का समाश्रयण करने से वाग्गुप्तिजन्य फल की प्राप्ति होगी, तब तो पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीवों को वचनसामग्री के अभाव से अनायास ही मौन का पालन जीवनपर्यन्त होने के सबब वागुप्ति के फल की प्राप्ति होने लगेगी। मगर ऐसा नहीं होता है। नकली घडी भी दिन में दो बार सच्चा समय दिखाती है, मगर इससे 'वह घडी सच्ची है' ऐसा व्यवहार नहीं होता है।