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२ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१
० प्रकरणस्य उपोद्घातः ० जिन इति व्युत्पत्त्या जिनपदेन श्रुतावधिजिनाद्युपस्थितिसंभवेऽपि योगाद्रूढिर्बलियसीति न्यायात् जिनपदं केवलिजिनपरम्, पूर्णज्ञानमित्यादिविशेषणान्यथानुपपत्तेश्च। नत्वा=नमस्कार्यावधिकस्वनिष्ठापकर्षबोधानुकूलं व्यापारं कृत्वा, अनेन मङ्गलमभिहितम्। भाषारहस्यमिति। भाषागोचररहस्यप्रतिपादकं भाषावक्तव्यताप्रतिबद्धं ग्रन्थविशेषम् । स्वं-स्वविरचितं रचनाकर्तृत्वसम्बन्धेन स्वकीयं वा, अनेन विषयरूपः अनुबन्धः प्रदर्शितः स च स्वविषयकज्ञानद्वारा शास्त्रे प्रवर्तकः। अतः तद्ग्रहणमावश्यकम्। 'तद्ग्रहणे तत्सजातीयोऽपि गृह्यते' इतिन्यायेनानुबन्धजातीयत्वात्संबन्धाधिकारिप्रयोजनानां ग्रहणं स्वयं भावनीयम्। विवृणोमीति परप्रतिपत्त्यनुकूल - तुल्यार्थकस्पष्टकथनात्मकशब्दप्रयोगानुकूलवर्तमानकालिककृतिमान् अहमित्यर्थः। विवरणक्रियाया भविष्यत्कालीनत्वेऽपि वर्त्तमानसमीपे वर्त्तमानवद्वेति न्यायेन लटा निर्देशः कृतः यद्वा नयविशेषाभिप्रायेण मङ्गलस्य विवरणग्रन्थान्यत्वाभावेन विवरणक्रियाया वर्तमानकालीनत्वं यथाश्रुतं भावनीयम्। यथामतीति। अनेनौद्धत्यमात्मनः परिहृतम्। उपाध्यायजी महाराज 'ऐन्द्रद्वंदं' इत्यादि से विवरण का श्रीगणेश करते हैं। विवरण के मंगलश्लोक का सामान्य अर्थ यह है कि - 'इंद्रो के वृंद से नमस्कृत, पूर्णज्ञानवाले एवं सत्यवाणीयुक्त श्रीजिनेश्वर भगवंत को नमस्कार कर के स्वरचित भाषारहस्य ग्रंथ का अपनी बुद्धि के अनुसार मैं (विवरणकार) विवरण = व्याख्यान करता हूँ|
* विवरण के मंगलश्लोक का विशेषार्थ * शिष्ट पुरुष किसी भी कार्य के प्रारंभ में उस कार्य की निर्विघ्न समाप्ति के लिए मंगलाचरण करते हैं। व्याख्याकार श्रीमद् भी इस शिष्टाचार का पालन करते हुए अपने इष्ट देव को नमस्कार, जो मंगलस्वरूप है, करते हैं। इससे विवरणकार की आस्तिकता भी प्रतीत होती है।
ऐन्द्र. इति। जिनके चरणों में देव, मनुष्य और राजा भी अपना सिर झुकाते हैं ऐसे जो इन्द्र, उनके समुदाय से जो जिनेश्वर भगवंत नमस्कृत हैं, वे किनके नमस्कार्य एवं पूजनीय नहीं होते? अर्थात् जो लौकिक सर्वश्रेष्ठ स्वर्गाधिपति से भी वंदित हैं, वे अन्य सब के लिए अवश्य वंदन-पूजन-सत्कार-सन्मान करने योग्य होते हैं। इस तरह 'ऐन्द्रवंदनतं' विशेषण से जिनेश्वर देव के पूजातिशय की सूचना मिलती है।
यह सुविदित है कि श्रीमद् महामहोपाध्यायजी ने पावन भागीरथी के तट पर शारदादेवी की उपासना कर के सारस्वत कृपा प्राप्त की थी। वाग्देवी की ओर भक्ति और कृतज्ञता को बताते हुए सारस्वतमंत्रबीज ऐं कार का, जिसकी साधना से उपाध्यायजी को श्रुतदेवता की ओर से वरदान प्राप्त हुआ था, प्रायः अपने प्रत्येक ग्रंथों के प्रारंभ में उपाध्यायजी महाराज इनका निर्देश करते हैं। प्रस्तुत में 'ऐन्द्रवृंदनतं' रूप सामासिक पद में जो प्रथम अक्षर 'ऐं' है, वह विवरणकार के प्रिय वाग्मंत्र का प्रधान बीज है। ___'पूर्णज्ञानं' विशेषण से जिनेश्वर भगवंत के ज्ञानातिशय की ओर अंगुलीनिर्देश किया गया है। 'सत्यगिरं' विशेषण से जिनेश्वर के वचनातिशय को प्रकट किया गया है। 'जिन' शब्द से अपायापगमातिशय व्यक्त किया गया है। रागादि अंतरंग शत्रुओं के उपर विजय को पानेवाले ही पूर्णज्ञान को प्राप्त कर सकते हैं, क्योंकि दशवें गुणस्थानक पर रागादि का क्षय करने के बाद ही संपूर्ण ज्ञान की १३ वें गुणस्थानक पर प्राप्ति होती है तथा जो पूर्णज्ञानवाले होते हैं, वे ही निश्चित रूप से सत्यवाणीवाले हो सकते हैं, क्योंकि सत्य वचन के प्रयोग के लिए पूर्ण ज्ञान आवश्यक है। वचनप्रयोग के पहले वाक्यार्थ ज्ञान आवश्यक है। अत एव 'सत्यगिरं' विशेषण के पहले 'पूर्णज्ञानं' विशेषण का ग्रहण किया गया है।
विवरणग्रंथ के मङ्गलश्लोक में भाषारहस्यनामक ग्रंथ का विवरण करने की प्रतिज्ञा का उल्लेख है। विवरण का अर्थ है तुल्यार्थक स्पष्ट कथन । मूल वाक्य से इसका विवक्षित अर्थ स्पष्ट न होता हो तब इसे स्पष्ट करनेवाली शब्दश्रेणि को विवरण कहा जाता है। वह तो मूल ग्रन्थ में अंतर्निहित रहस्यार्थ को खोलने की कुंजी मात्र है। इस कथन से मूल ग्रन्थ की अर्थ गंभीरता सूचित होती है।
'यथामति' शब्द से व्याख्याकार ने अपनी उद्धतता का परिहार किया है। 'भाषारहस्यं स्वं' इससे अभिधेय बताया गया है। इसको विषयरूप अनुबन्ध भी कहा जाता है। अनुबन्ध का अर्थ है - स्वविषयकज्ञानद्वारा शास्त्रे प्रवर्तकः । अर्थात् अपना ज्ञान करा