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आमुख
उत्तराध्ययन के इस दूसरे अध्ययन में मुनि के परीषहों है, वह परीषह है। का निरूपण है। कर्म-प्रवाद पूर्व के १७वें प्राभृत में परीषहों का काय-क्लेश के अभ्यास से शारीरिक दुःख को सहने की नय और उदाहरण-सहित निरूपण है। वही यहां उद्धृत किया क्षमता, शारीरिक सुखों के प्रति अनाकांक्षा और क्वचिद् जिनशासन गया है। यह नियुक्तिकार का अभिमत है।' दशवकालिक के सभी की प्रभावना भी होती है। परीषह सहने करने से स्वीकृत अध्ययन जिस प्रकार पूर्वो से उद्धृत हैं, उसी प्रकार अहिंसा आदि धर्मों की सुरक्षा होती है। उत्तराध्ययन का यह अध्ययन भी उद्धत है।
इस अध्ययन के अनुसार परीषह बाईस हैंजो सहा जाता है उसे कहते हैं परीषह। सहने के दो
१. क्षुधा
१२. आक्रोश प्रयोजन हैं : (१) मार्गाच्यवन और (२) निर्जरा। स्वीकृत मार्ग से
२. पिपासा १३. वध च्युत न होने के लिये और निर्जरा--कर्मों को क्षीण करने के
३. शीत
१४. याचना लिये कुछ सहा जाता है।
४. उष्ण
१५. अलाभ भगवान महावीर की धर्म-प्ररूपणा के दो मुख्य अंग हैं---
५. दंश-मशक १६. रोग अहिंसा और कष्ट-सहिष्णुता । कष्ट सहने का अर्थ शरीर,
६. अचेल १७. तृण-स्पर्श इन्द्रिय और मन को पीड़ित करना नहीं, किन्तु अहिंसा आदि
७. अरति
१८. जल्ल धर्मों की आराधना को सुस्थिर बनाये रखना है। आचार्य
८. स्त्री कुन्दकुन्द ने कहा है :
१६. सत्कार-पुरस्कार
६. चर्या सुहेण भाविदं गाणं, दुहे जादे विणस्सदि।
२०. प्रज्ञा तम्हा जहाबलं जोई, अप्पा दुक्खेहि भावए।।
१०. निषद्या २१. अज्ञान अर्थात् सुख से भावित ज्ञान दुःख उत्पन्न होने पर नष्ट
११. शय्या
२२. दर्शन हो जाता है, इसलिए योगी को यथाशक्ति अपने-आपको दुःख से
तत्त्वार्थ सूत्र में भी इनकी संख्या बाईस ही है। भावित करना चाहिये।
इनमें दर्शन-परीषह और प्रज्ञा-परीषह-ये दो मार्ग से इसका अर्थ काया को क्लेश देना नहीं है। यद्यपि एक अच्यवन में सहायक होते हैं और शेष बीस परीषह निर्जरा के सीमित अर्थ में काय-क्लेश भी तप रूप में स्वीकृत है किन्तु लिए होते हैं। परीषह और काय-क्लेश एक नहीं हैं। काय-क्लेश आसन समवायांग (समवाय २२) में अन्तिम तीन परीषहों का करने, ग्रीष्म ऋतु में आतापना लेने, वर्षा-ऋतु में तरुमूल में क्रम उत्तराध्ययन से भिन्न है :निवास करने, शीत ऋतु में अपावृत स्थान में सोने और नाना उत्तराध्ययन
समवायांग प्रकार की प्रतिमाओं को स्वीकार करने, न खुतलाने, शरीर की १. प्रज्ञा
१. ज्ञान विभूषा न करने के अर्थ में स्वीकृत है।'
२. अज्ञान
२. दर्शन उक्त प्रकारों में से कोई कष्ट जो स्वयं इच्छानुसार झेला ३. दर्शन
३. प्रज्ञा जाता है, वह काय-क्लेश है और जो इच्छा के बिना प्राप्त होता अभयदेवसूरी ने समवायांग की वृत्ति में अज्ञान-परीषह १. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ६६
ठाणा वीरासणाईया जीवस्स उ सुहावहा। कम्मप्पवायपुवे सत्तरसे पाहुडंमि जं सुत्तं।
उग्गा जहा धरिज्जन्ति कायकिलेसं तमाहियं ।। सयणं सोदाहरणं तं चे इहपि णायव्यं ।।
(ख) ओववाइय, सूत्र ३६ : से किं तं कायकिलेसे? कायकिलेसे २. तत्त्वार्थसूत्र, ६ मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्याः परीषहाः ।
अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा-ठाणाट्टिइए उक्कुडयासणिए पडिमठाई ३. सूयगडो, ११२।१।१४:
वीरासणिए नेसज्जिए आयावए अवाउडए अकंडुयए अणिटुहए सव्वगायधुणिया कुलियं व लेववं किसए देहमणासणा इह।
परिकम्मविभूसविप्पमुक्के। अविहिंसामेव पव्वए अणुधम्मो मुणिणा पवेइओ।।
तत्त्वार्थ वृत्ति (श्रुतसागरीय), पृष्ठ ३०१, सू. ६१७, की वृत्ति : यदृच्छया वृत्ति-विविधा हिंसा विहिंसा न विहिंसा अविहिंसा तामेव प्रकर्षेण व्रजेत, समागतः परीषहः, स्वयमेव कृतः कायक्लेशः।। अहिंसाप्रधानो भयेदित्यर्थः अनुगतो-मोक्ष प्रयत्नुकूलो धर्मोऽनुधर्मः ७. वही : शरीरदुःखसहनार्थ शरीरसुखानभिवाञ्छार्थ जिनधर्मप्रभावनाद्यर्थञ्च । असावहिंसालक्षणः परीषहोपसर्गसहनलक्षणश्च धर्मों 'मुनिनो सर्वज्ञेन तत्त्वार्थसूत्र, EE: क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याश'प्रवेदितः' कथित इति।
व्याक्रोशवधयाचनाऽलाभरोगतॄणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि । ४. अष्टपाहुड, मोक्ष प्राभृत ६२।
६. प्रवचनसारोद्धार, पत्र १६२, गाथ. ६८५ की वृत्ति : तत्र मार्गाच्यवनार्थ ५. (क) उत्तरज्झयणाणि ३०।२७ :
दर्शनपरीषहः प्रज्ञापरीषहश्च, शेषा विंशतिर्निर्जरार्थम् ।
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