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घउत्थे भंते ! महव्वए उवढिओमि सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं। भेन्ते ! इसके पश्चात् चौथे महाव्रत में मैथुन की विरति होती है।
भन्ते ! मैं सर्व मैथुन क्रिया का प्रत्याख्यान करता हूँ। दिव्य (देव सम्बन्धी), 7 मानुषिक (मनुष्य सम्बन्धी) और तिर्यंच सम्बन्धी सभी प्रकार के मैथुन का मैं
स्वयं सेवन नहीं करूँगा, अन्य से मैथुन का सेवन नहीं कराऊँगा और मैथुन का सेवन करने वाले का अनुमोदन नहीं करूँगा। मैं समस्त जीवन पर्यन्त तीन करण
और तीन योग से इसका पालन करूँगा। अर्थात् मैं जीवन पर्यन्त मैथुन क्रिया मन, वचन, काया से न करूँगा, न कराऊँगा, न करने वाले का अनुमोदन करूंगा।
भन्ते ! मैं अतीत में किये मैथुन सेवन का प्रतिक्रमण करता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, उसकी गर्दा करता हूँ और आत्मा द्वारा वैसी प्रवृत्ति का त्याग करता
भन्ते ! मैं चौथे महाव्रत में उपस्थित हुआ हूँ। इसमें सर्व मैथुन की विरति होती है।॥१४॥
14. Bhante! After this, the fourth great-vow is abstinence from sexual intercourse.
Bharite! I hereby abstain completely from sexual intercourse. I will not indulge in the act of sexual intercourse with any being, divine, human or animal; neither will I induce others to do so or approve of others doing so. All my life I will observe this great vow through three means and three methods. In other words, throughout my life I will, through mind, speech or body, neither do, induce others to do or approve of others doing such an act of sexual intercourse.
Bhante! I critically review any such act of sexual intercourse done in the past, denounce it, censure it and earnestly desist from indulging in it. चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका Fourth Chapter : Shadjeevanika
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