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___ आत्मार्थी मुधाजीवी (धर्म के लिए जीने वाला) साधु आगमोक्त विधि से प्राप्त
अरस, विरस, सूचित, असूचित, आर्द्र, शुष्क तथा बैर. का चूर्ण, मूंग-उड़द के
बाकले आदि किसी भी प्रकार के निकृष्ट भोजन की घृणा से निन्दा न करे। थोड़ा TRA या बहुत जो भी प्राप्त हुआ हो, बिना किसी ननुनच के उसी से संतुष्ट रहे। प्राप्त
वस्तु की अवहेलना न करे। अस्तु मुधाजीवी साधु को तो जो आहार मिले वह SG मुधालब्ध (निःस्वार्थ वृत्ति) से प्राप्त और प्रासुक होना चाहिये, उसे ही संयोजनादि दोषों का वर्जन करता हुआ निःस्पृहभाव से खा लेवे॥९८-९९॥
98, 99. An ascetic who is a spiritualist and mudhajivi should not condemn with aversion any food collected in the prescribed manner, no matter if it is with or without taste, flavor, richness and other qualities. He should be content with what little or much he gets without any feeling of annoyance. He should not belittle what he gets. Thus, a mudhajivi ascetic should eat, with a detached attitude, whatever acceptable food he has collected without yearning. While eating he should avoid faults like mixing anything to improve taste. विशेषार्थ :
श्लोक ९८, ९९. अरसं-अरस-संस्काररहित या बघाररहित भोजन; बेस्वाद। विरसं-विरस-जिसका स्वाद बिगड़ गया हो; बासी आदि। सूइयं-व्यंजनादि से युक्त भोजन; मसालेदार; चटपटा। उल्लं-आर्द्र-तरी वाला आहार-जिसमें अधिक घी, तेल व मसाला हो। सुक्कं-शुष्क-आर्द्र का विपरीत। मंथु-मन्थु-बेर का चूर्ण; अन्य प्रकार के चूर्ण या सत्तू।
कुम्मास-कुल्माष-उबले हुए उड़द, मूंग आदि के बाकले; यव-मास आदि अर्थात् जैसा भी आहार भिक्षा में प्राप्त हुआ हो उसे इस प्रकार उदर में डाले जैसे कोई गाड़ीवान अपनी गाड़ी चलाने के लिए उसके पहियों को तेल आदि लगाता हो। (देखें चित्र संख्या १२)
मुहालद्ध-मुधालब्ध-बिना किसी स्वार्थभाव के मिला अर्थात् उपकार, मंत्र, तंत्र और - औषधि के द्वारा हित-सम्पादन के बिना मिला हुआ पवित्र आहार।
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श्री दशवैकालिक सूत्र : Shri Dashavaikalik Sutra
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