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senses, he should free himself of the desires, pacify his soul with the water of magnanimity and move with complete freedom.
६१ : जाइ सद्धाइ निक्खंतो परिआयट्ठाणमुत्तमं।
तमेव अणुपालिज्जा गुणे आयरियसम्मए। साधु को चाहिए कि जिस श्रद्धा के साथ संसार का त्यागकर प्रव्रज्या ग्रहण की है उसी आचार्य-सम्मत (तीर्थंकर कथित) गुणों में रही हुई श्रद्धा का पूर्ण दृढ़ता के साथ पालन करे॥६१॥
61. It is befitting an ascetic to maintain the faith in the virtues conveyed by the acharya (propagated by the Tirthankar), the faith with which he renounced the world and got initiated to begin with. अध्ययन उपसंहार ६२ : तवं चिमं संजमजोगं च सज्झायजोगं च सया अहिट्ठिए।
सूरे व सेणाइ समत्तमाउहे अलमप्पणो होइ अलं परेसिं॥ तप की आराधना करने वाला संयम योग पालक एवं स्वाध्याय-योगनिष्ठ मुनि, इन्द्रिय और कषाय से अपनी और दूसरों की रक्षा करने में उसी प्रकार समर्थ हो, जिस प्रकार सेना से घिर जाने पर एक शस्त्रधारी वीर योद्धा अपनी एवं पर की रक्षा करने के लिए समर्थ होता है।६२॥ CONCLUSION OF THE CHAPTER
62. The shramans who practice austerities, follow the ascetic discipline, and remain meticulous in studies, are able to protect themselves and others from the onslaught of senses and passions as a brave warrior equipped with weapons is able to save himself and others from the surrounding army. ६३ : सज्झाय सज्झाणरयस्स ताइणो अपावभावस्स तवे रयस्स।
विसुज्झई जं सि मलं पुरेकडं समीरियं रुप्पमलं व जोइणा॥
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श्री दशवैकालिक सूत्र : Shri Dashavaikalik Sutra
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