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१६ : किं पुण जे सुयग्गाही अणंतहिअकामए।
आयरिआ जं वए भिक्खू तम्हा तं नाइवत्तए॥ ___ जब (लौकिकविद्या प्रेमी ऐसा करते हैं) तब श्रुत-ग्रहण करने वाले एवं अनन्त
आत्म-कल्याण की इच्छा रखने वालों का तो कहना ही क्या? इसलिए उन्हें तो विशेष रूप से धर्माचार्य की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए॥१६॥ ____15, 16. In spite of being thrashed by their teacher they worship, honor, obey and salute him for the knowledge he has imparted.
When people desirous of mundane knowledge do so, what to say of those who are desirous of spiritual uplift? Therefore they should be more particular about not going against the dictates of their religious teacher. गुरु के समीप उठने-बैठने की मर्यादा
१७ : नीयं सिज्जं गइं ठाणं नीअं च आसणाणि य।
नीअं च पाए वंदिज्जा नीअं कुज्जा य अंजलिं॥ शिष्य का कर्तव्य है कि शय्या, गति, स्थान और आसन आदि सब गुरु से नीचे ही रखे। विनयपूर्वक नीचे झुककर हाथ जोड़े। गुरुओं के चरणों में नतमस्तक होकर विधियुक्त वन्दना करे॥१७॥ THE DISCIPLINE OF SITTING AND STANDING NEAR THE GURU
17. It is the duty of the disciple to keep his bed, movement, place and seat at a lower level then his guru. He should offer salutations to the guru in the prescribed manner by joining palms and bowing his head. विशेषार्थ :
श्लोक १७. नीअं गई-नीचे चले। इसके विकल्प हैं-आगे नहीं, पीछे चलना; अति समीप और अति दूर नहीं चलना। ठाणं-नीचे खड़ा रहे अर्थात् गुरु के खड़े होने के स्थान से नीचे
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नवम अध्ययन : विनय समाधि (दूसरा उद्देशक) Ninth Chapter : Vinaya Samahi (2nd Sec.) ३१५
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