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७ : सम्मद्दिट्ठी सया अमूढे अस्थि हुनाणे तवे संजमे य।
तवसा धुणइ पुराणपावगं मण-वय-काय सुसंवुडे जे स भिक्खू॥
जो सम्यग्दर्शी है, मूढ़भावरहित है अर्थात् मिथ्यात्वियों का वैभव देखकर | मोहित नहीं होता। ज्ञान, तप और संयम के प्रति आस्थावान है, मन, वचन और NS
काय को संवृत रखता है तथा तप द्वारा पुरातन पापकर्मों को आत्मा से पृथक् करता है, वह भिक्षु है॥७॥
7. One who is endowed with right perception; who is not enticed by the grandeur of those on the wrong path; who has
faith in knowledge, austerity and discipline; who keeps his If mind, speech and body in control; and who sheds the acquired
karmas with the help of austerities; he alone is a bhikshu. विशेषार्थ :
श्लोक ७. मणवयकायसुसंवुडे-अकुशल मन का निरोध तथा कुशल मन की उदीरणा-मन से सुसंवृत होना है। अकुशल वचन का निरोध और प्रशस्त वचन की उदीरणा अथवा मौन रहना वचन से सुसंवृत होना है। शास्त्र विहित नियमों के अनुसार आवश्यक शारीरिक क्रियाएँ करना अथवा काया से अकरणीय क्रियाएँ नहीं करना काय से सुसंवृत होना है। (जि. चू., पृष्ठ ३४२) ELABORATION:
(7) Manavayakayasusamvudde-to have control over mind, speech and body or to keep these three faculties in perfect health. To curb bad attitudes and to foster good attitudes is perfect mental health. To curb bad speech and to foster good speech is perfection of speech. To curb bad physical activities and to foster good physical activities following the dictates of the scriptures is perfect physical health. (Jinadas Churni, page 342) संग्रह-निषेध ८ : तहेव असणं पाणगं वा विविहं खाइमसाइमं लभित्ता।
होही अट्ठो सुए परे वा तं न निहे न निहावए जे स भिक्खू॥
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श्री दशवकालिक सूत्र : Shri Dashavaikalik Sutra
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