Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Sthanakvasi
Author(s): Shayyambhavsuri, Amarmuni, Shreechand Surana, Purushottamsingh Sardar, Harvindarsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan

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Page 491
________________ MIRIT खबर ५८. उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे। माययंमज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे॥ ८/३९ क्रोध को शान्ति से, मान को मृदुता-नम्रता से, माया को ऋजुता-सरलता से और लोभ को संतोष से जीतना चाहिए। One should subdue anger with tranquillity, conceit with humbleness, deceit with simplicity and greed with contentment. 8/39 ५९. रायणिएसु विणयं पउंजे। ८/४१ बड़ों (रत्नाधिक) के साथ विनयपूर्ण व्यवहार करो। One should be humble in his behaviour towards his seniors (superior in knowledge). 8/41 ६०. सप्पहासं विवज्जए। ८/४२ अट्टहास नहीं करना चाहिए। One should not laugh loudly. 8/42 ६१. अपुच्छिओ न भासेज्जा, भासमाणस्स अन्तरा। ८/४७ बिना पूछे व्यर्थ ही किसी के बीच में नहीं बोलना चाहिए। One should not intervene in a conversation unless invited. 8/47 ६२. पिट्ठिमंसं न खाइज्जा। ८/४७ किसी की चुगली खाना-पीठ का माँस नोंचने के समान है, अतः किसी की पीट पीछे चुगली नहीं खाना चाहिए। One should not criticize someone in his absence because it amounts to snipping flesh from his back. 8/47 ६३. दिलै मियं असंदिद्धं, पडिपुन्नं विअं जियं। अयंपिरमणुव्विग्गं, भासं निसिर अत्तवं॥ ८/४९ आत्मवान् साधक दृष्ट (अनुभूत), परिमित (संक्षिप्त), सन्देहरहित, परिपूर्ण (अधूरी कटी-छंटी बात नहीं) और स्पष्ट वाणी का प्रयोग करे। किन्तु, यह ध्यान में रहे कि वह वाणी भी वाचालता से रहित तथा दूसरों को उद्विग्न करने वाली न हो। अअअअअ En परिशिष्ट-२ Appendix -2 ४०७ DO SCUTII Guru Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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