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५४. बलं थामं च पेहाए, सद्धामारुग्गमप्पणो। खेत्तं कालं च विनाय, तहप्पाणं निझुंजए॥
८/३५ अपना मनोबल, शारीरिक शक्ति, श्रद्धा, स्वास्थ्य, क्षेत्र और काल को ठीक तरह से परखकर ही अपने को किसी भी सत्कार्य के सम्पादन में नियोजित करना चाहिए। Judging his own strength and endurance, faith and health, matter and its state, and place and time, one should indulge in pious activities to the best of his abilities.
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५५. जरा जाव न पीडेइ, वाही जाव न वड्डइ जाविंदिया न हायंति, ताव धम्मं समायरे॥
८/३६ जब तक बुढ़ापा आता नहीं है, जब तक व्याधियों का जोर बढ़ता नहीं है, जब तक इन्द्रियाँ (कर्मशक्ति) क्षीण नहीं होती हैं, तभी तक बुद्धिमान् को, जो भी धर्माचरण करना हो, कर लेना चाहिए। Till such time that old age has atrophied the body, ailments have overwhelmed it, and the faculties are disabled, the wise
should promptly indulge in religious activities. 8/36 ५६. कोहं माणं च मायं च, लोभं च पाववडणं। वमे चत्तारि दोसे उ, इच्छंतो हियमप्पणो॥
८/३७ क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चारों पाप की वृद्धि करने वाले हैं, अतः आत्मा का हित चाहने वाला साधक इन दोषों का परित्याग कर दे। He who desires to benefit his soul should avoid the four great faults that are the sources of all sins--anger, conceit, deceit and greed.
8/37 ५७. कोहो पीइं पणासेइ, माणो विणयनासणो। माया मित्ताणि नासेइ, लोभो सव्व विणासणो॥
८/३८ क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का, माया मैत्री का और लोभ सभी सद्गुणों का विनाश कर डालता है। Anger destroys love and goodwill, conceit destroys humbleness, deceit destroys friendship and greed destroys all virtues.
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श्री दशवैकालिक सूत्र : Shri Dashavaikalik Sutra
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