Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Sthanakvasi
Author(s): Shayyambhavsuri, Amarmuni, Shreechand Surana, Purushottamsingh Sardar, Harvindarsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan

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Page 434
________________ Simins AMITRAM - संयम और अमूर्छाभाव १५ : हत्थसंजए पायसंजए वायसंजए संजइंदिए। अज्झप्परए सुसमाहियप्पा सुत्तत्थं च वियाणई जे स भिक्खू॥ । जो अपने हाथ, पैर, वाणी और इन्द्रियों से पूर्ण संयत है. अध्यात्मविद्या में hes रत है, भली प्रकार से समाधिभाव में स्थिर है तथा सूत्र एवं अर्थ के मर्म को यथार्थ रूप से जानता है, वह भिक्षु है।॥१५॥ DISCIPLINE AND DETACHMENT ca 15. One who is perfectly composed in terms of limbs, speech and senses; who is absorbed in spiritual practices; who is unwavering in meditation; and who knows and understands A the text and correct meaning of the scriptures; he alone is a bhikshu. विशेषार्थ : श्लोक १५. संजए-संयत-जो प्रयोजन न होने पर मन, वचन व काया तथा इन्द्रियों की प्रवृत्तियों को कछुए के समान गुप्त अथवा पूर्ण नियन्त्रित कर राग-द्वेष से मुक्त रखता है और आवश्यकता पड़ने पर ही आत्म-शुद्धि की दिशा में उन्हें नियमानुसार प्रयुक्त करता है, उसे संयत कहते हैं। संयत शब्द से प्रवृत्ति-निवृत्ति दोनों का ही बोध होता है। ELABORATION: (15) Sanjae-composed; who like a tortoise stops all activities of mind, speech, body and the senses when not needed and commences activity according to the codes of conduct when needed for spiritual attainment. This term indicates both indulgence and non-indulgence. १६ : उवहिम्मि अमुच्छिए अगिद्धे अन्नायउंछंपुल निप्पुलाए। कयविक्कयसन्निहिओ विरए सव्वसंगावगए य जे स भिक्खू॥ जो मुनि अपने वस्त्र आदि उपकरणों में मूर्छाभाव नहीं रखता, सांसारिक प्रतिबन्धों से मुक्त रहता है, अज्ञात कुलों से भिक्षा ग्रहण करता है, संयम को ३५२ श्री दशवैकालिक सूत्र : Shri Dashavaikalik Sutra 05 SUILD (Omau Moumwww Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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