Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Sthanakvasi
Author(s): Shayyambhavsuri, Amarmuni, Shreechand Surana, Purushottamsingh Sardar, Harvindarsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan

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Page 467
________________ Simins suwwwwww अअअअ L विशेषार्थ : श्लोक ११. संवच्छरं वावि-साधु की बारह महीने की विहारचर्या को दो प्रमाणों में बाँटा है-एक वर्षाकाल और दूसरा ऋतुबद्ध काल। आचारांग एवं बृहत्कल्प आदि में बताया हैसाधु वर्षाकाल में चार मास तथा शेष काल में एक मास एक स्थान पर रह सकता है। यह उसका परम प्रमाण है। जहाँ उत्कृष्ट काल का वास किया हो वहाँ उससे दुगुना काल दूसरी जगह बिताकर फिर वहाँ रह सकता है। जैसे एक चातुर्मास करने के बाद दो अथवा तीन वर्षावास अन्यत्र बिताकर फिर उस स्थान पर वर्षावास तथा पूर्ण एक मास रहने के पश्चात् दो मास अन्यत्र बिताकर फिर वहाँ एक मास बिताया जा सकता है। -(देखें आचार्यश्री आत्माराम जी महाराज दशवै., पृष्ठ ६७४) ELABORATION: (11) Samvachharam vavi--the calendar of the itinerant way of an ascetic has been divided in two parts—the monsoon period and the remaining period. In scriptures like Acharang and Vrihatkalp it is stated— The maximum period of stay of a shraman at a place is four months during the monsoon season and one month during other seasons. He is allowed to return to that place for another maximum-stay (four months or a month) only after he has completed two or more maximum-stays of the same or higher duration at other places. (Dashavaikalik Sutra by Acharyashri Atmaram ji M., page 674) आत्म-संप्रेक्षा १२ : जो पुव्वरत्तावररत्तकाले संपेहए अप्पगमप्पएणं। किं मे कडं किं च मे किच्च सेसं किं सक्कणिज्जं न समायरामि॥ १३ : किं मे परो पासइ किं च अप्पा किं वाऽहं खलियं न विवज्जयामि। इच्चेव सम्मं अणुपासमाणो अणागयं नो पडिबंध कुज्जा। ___ जो साधु रात्रि के पहले और पिछले प्रहर में अपनी आत्मा को अपने आप सम्यक् प्रकार से देखता है, विचार करता है कि मैंने क्या किया है? मेरे लिए क्या करना शेष है ? वह कौन-सा कार्य है जिसे करने की शक्ति होते हुए भी प्रमादवश मैं नहीं कर रहा हूँ॥१२॥ | द्वितीय चूलिका : विविक्त चर्या Second Addendum : Vivitta Chariya ३८३ न minine Animummy/ Conta Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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