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३४. मुसावाओ उ लोगम्मि, सव्वसाहूहिं गरहिओ ।
विश्व के सभी सत्पुरुषों ने मृषावाद (असत्य) की निंदा की है।
All sages in this world have condemned falsehood.
३६. मुच्छा परिग्गहो वृत्तो ।
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३५. जे सिया सन्निहिं कामे, गिही पव्वइए न से।
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जो सदा संग्रह की भावना रखता है, वह साधु नहीं, (साधुवेश में) गृहस्थ ही है।
An ascetic who always desires to collect is in fact a householder not a shraman.
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मूर्च्छा को ही वस्तुतः परिग्रह कहा है।
The sages say that attachment is possession.
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३७. अवि अप्पणो वि देहमि, नायरंति ममाइयं ।
अकिंचन मुनि, और तो क्या, अपने देह पर भी ममत्व नहीं रखते ।
The detached ascetics do not nurture any feeling of attachment even for their body.
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३८. कुसीलवडणं ठाणं, दूरओ परिवज्जए ।
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कुशील (अनाचार) बढ़ाने वाले प्रसंगों से साधक को हमेशा दूर रहना चाहिए ।
An ascetic should avoid indulging in activities that promote corruption.
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३९. जमट्टंतु न जाणेज्जा, एवमेयंति नो वए।
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जिस बात को स्वयं न जानता हो, उसके सम्बन्ध में 'यह ऐसा ही है' - इस प्रकार निश्चित भाषा न बोले ।
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When not fully aware of the facts one should not give a conclusive statement like-It certainly is like this. -
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४०. जत्थ संका भवे तं तु, एवमेयंति नो वए।
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जिस विषय में अपने को कुछ भी शंका जैसा लगता हो, उसके सम्बन्ध में 'यह ऐसा ही है ' - इस प्रकार निश्चित भाषा न बोले ।
परिशिष्ट - २ Appendix 2
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