Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Sthanakvasi
Author(s): Shayyambhavsuri, Amarmuni, Shreechand Surana, Purushottamsingh Sardar, Harvindarsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan

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Page 442
________________ इमे अ मे दुक्खे न चिरकालोवट्ठाई भविस्सइ। ४. मेरा यह परीषहों से उत्पन्न दुःख सदा स्थायी नहीं रहेगा। ओमजणपुरकारे। ५. गृहस्थ को नीच जनों (क्षुद्र पुरुषों) का भी सत्कार करना पड़ता है। वंतस्स य पडिआयणं। ६. संयम को त्याग पुनः गृहस्थ बन जाना वमन को पीने के समान है। अहरगइ वासोवसंपया। ७. संयम को त्याग पुनः गृहस्थ बन जाना नारकीय जीवन को अंगीकार करने जैसा है। दुल्लहे खलु भो ! गिहीणं धम्मे गिहिवासमझे वसंताणं। ८. अहो ! गृहस्थ जीवन के बीच धर्म की साधना निश्चय ही अतिदुर्लभ है। आयंके से वहाय होइ। ९. वहाँ आतंक (रोगों) की परिणति मृत्यु में होती है। संकप्पे से वहाय होइ। १०. वहाँ संकल्प (मानसिक रोग) की परिणति मृत्यु में होती है। सोवक्केसे गिहवासे। निरुवक्केसे परियाए॥ ११. गृहवास क्लेशमय है और मुनि पर्याय क्लेश-मुक्त है। THE EIGHTEEN THINGS O seekers of liberation! After getting initiated into the nirgranth religion, if any shraman faces some misery, caused by some indiscretion, looses interest and will to follow the path of discipline, and wants to abandon the ascetic way to return to the worldly ways of a householder, he should, before ३६० श्री दशवैकालिक सूत्र : Shri Dashavaikalik Sutra -COLLLLLOT OTuuuN Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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