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जो मुनि आचार्यों एवं उपाध्यायों की सेवा-शुश्रूषा करने वाले, उनकी | आज्ञा-पालन करने वाले होते हैं, उनका ज्ञान (शिक्षा) अच्छी तरह जल से सींचे हुए वृक्षों की तरह क्रमशः बढ़ता ही जाता है॥१२॥ ___ 12. The ascetics who serve and obey the acharyas and upadhyayas are blessed with ever increasing knowledge like a well watered tree. विशेषार्थ :
श्लोक १२. आयरिय उवज्झायाणं-संघ व्यवस्था की दृष्टि से तो पाँच पदों में आचार्य तृतीय पद के धारक तथा उपाध्याय चतुर्थ पद धारक होते हैं। ज्ञान-दान की दृष्टि से यहाँ प्रसंगोपात्त आचार्य और उपाध्याय की व्याख्या इस प्रकार की जाती है-जो अर्थ की वाचना दे वह आचार्य तथा सूत्र की वाचना देने वाले उपाध्याय-अत्थं वाएइ आयरिओ सुत्तं वाएइ उवज्झाओ (ओघनियुक्ति) चूर्णि एवं टीका के अनुसार जो मूत्र और अर्थ से सम्पन्न तथा अपने गुरु द्वारा गुरु-पद पर स्थापित होते हैं, वह आचार्य कहलाते हैं। (देखें दसवेआलियं आचार्य महाप्रज्ञ, पृष्ठ ४४३) ELABORATION:
(12) Ayariya uvajjhayanam—of the five organizational positions in Jain religious order an acharya occupies the third and an upadhyaya the second. In context of teaching they are defined as follows-acharya is the one who teaches the meaning and upadhyaya is the one who teaches text (Ogha Niryukti). According to the commentaries an acharya is the one who knows both text and the meaning and is assigned to teaching by his guru. (Dashavaikalik Sutra by Acharya Mahaprajna, page 443) लौकिक विद्या के लिए भी गुरु की तर्जना सहते हैं १३ : अप्पणट्ठा परट्ठा वा सिप्पा गेउणिआणि अ।
गिहिणो उवभोगट्ठा इह लोगस्स कारणा॥ १४ : जेण बंधं वहं घोरं परिआवं च दारुणं।
सिक्खमाणा निअच्छंति जुत्ता ते ललिइंदिया॥
नवम अध्ययन : विनय समाधि (दूसरा उद्देशक) Ninth Chapter : Vinaya Samahi (2nd Sec.) ३१३
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