________________
BLOFT 筑
Jain Education International
१० : अलोलुए अक्कुहए अमाई अपिसुणे आवि अदीणवित्ती । नो भावए नो वि अ भाविअप्पा अकोउहल्ले य सया स पुज्जो ॥
منت
जो रस आदि इन्द्रियों के लोलुप नहीं है, इन्द्रजाल, माया, चुगली, दीनता आदि दोषों से दूर रहते हैं, दूसरों से अपनी स्तुति नहीं कराते, स्वयं अपनी स्तुति दूसरों के सामने नहीं करते तथा कौतूहल नहीं रखते वे ही पूज्य होते हैं ॥ १० ॥
10. He who is not covetous, crafty, devious, pathetic, or a scandalmonger; who neither makes others sing in his praise nor sings in his own praise before others; and who is free of any curiosity is a worthy one.
विशेषार्थ :
श्लोक १०. अक्कुहए - अकुहक - विस्मयकारक नहीं। कुछ धातु से बना यह शब्द विस्मयकारक, ऐन्द्रजालिक, वञ्चक आदि अर्थों में प्रयुक्त होता है। इसका अर्थ दूसरों को हँसाने के लिए कौतुक करने वाला भी होता है।
भाव - भावितः भाव का अर्थ है वासित करना, चिंतन करना, पर्यालोचन करना । अतः इस पद का सामान्य अर्थ है - न दूसरों को अहितकर भावना से भावित करे और न स्वयं वैसी भावना से भावित हो । उदाहरणात्मक भावार्थ है - दूसरों से प्रशंसा न करावे, स्वयं आत्म-प्रशंसा न करे।
ELABORATION:
(10) Akkuhaye— not astonishing; here it means he who does not extract his own benefits by astonishing others; not crafty. It also means a jester or entertainer.
Bhavaye-to think; to contemplate. When used with negation it generally means 'not to think bad about'. Here it is interpreted as not to praise oneself.
गुण ग्रहण करे
११ : गुणेहिं साहू अगुणेहिंऽसाहू गिण्हाहि साहू गुण मुंचऽसाहू । वियाणिआ अप्पगमप्पएणं जो रागदोसेहिं समोस पुज्जो ॥
श्री दशवैकालिक सूत्र : Shri Dashavaikalik Sutra
POUDELETES
३२६
筑
For Private Personal Use Only
www.jainelibrary.org