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__ १४ : तेसिं गुरूणं गुणसायराणं सुच्चाण मेहावि सुभासिआइं।
चरे मुणी पंचरए तिगुत्तो चउक्कसायावगए स पुज्जो॥ जो शिष्य, आचार्य को अभ्युत्थान, विनय आदि से सतत सम्मानित करते हैं, 5 वे स्वयं भी आचार्य से विद्यादान द्वारा सम्मानित होते हैं, जैसेकि पिता अपनी KA कन्या को यत्नपूर्वक श्रेष्ठ कुल में स्थापित करता है। अतः जो सत्यवादी, जितेन्द्रिय
और तपस्वी साधु, ऐसे सम्मान योग्य आचार्यों का सम्मान करते हैं, वे पूज्य हैं॥१३॥
जो मेधावी गुण-सागर गुरुजनों के सुभाषित वचनों को सुनकर तदनुसार आचरण करने वाले होते हैं, पाँच महाव्रतों के पालक, तीनों गुप्तियों के धारक एवं क्रोध-मान आदि कषायों से दूर रहते हैं वे पूज्य होते हैं।॥१४॥
13, 14. A pupil who always honors the acharya by offering due respect is himself honored by the acharya by way of imparting knowledge in the same way as a father establishes his daughter in a respectable family. Therefore, a truthful, disciplined and austere shraman who honors an able acharya is a worthy one.
He who attentively listens to the aphorisms uttered by the profoundly worthy acharyas and acts accordingly; who resolutely follows the five great vows, who practices the three guptis (restraint), and who avoids the passions like anger and conceit, is a worthy one. १५ : गुरुमिह सययं पडिअरिअ मुणी जिणमयनिउणे अभिगमकुसले। धुणिअ रयमलं पुरेकडं भासुरामउलं गई वइ ।
त्ति बेमि। जिन-भाषित तत्त्वों को पूर्ण रूप से जानने वाला एवं अतिथि साधुओं की विनय-भक्ति (अभिगम) में कुशल साधु इस संसार में गुरु की सतत सेवा करके
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श्री दशवैकालिक सूत्र : Shri Dashavaikalik Sutra
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