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७ : तहेव अविणीअप्पा लोगंसि नरनारिओ । दीसंति दुहमेहंता छाया ते विगलिंदिआ ॥ ८ : दंड-सत्थपरिजुण्णा असम्भवयणेहि अ । कलुणा विवन्नछंदा खुप्पिवासाइ परिगया ॥
लोक में जो पुरुष व स्त्री अविनीत होते हैं, वे नाना प्रकार के कष्टों को भोगते हुए क्षत-विक्षत, दुर्बल और इन्द्रिय - विकल होकर दुःख भोगते दिखाई पड़ते हैं ॥ ७ ॥
वे दण्ड और शस्त्र से जर्जर शरीर वाले, असभ्य वचनों द्वारा सर्वत्र तिरस्कार पाने वाले, दयनीय, पराधीन जीवन विताने वाले एवं भूख-प्यास की असह्य वेदना प्राप्त करते देखे जाते हैं ॥ ८ ॥
7, 8. The rude and ill-mannered men and women of this world can be seen suffering grave miseries by getting painfully wounded, weak and disabled.
They can be seen with their bodies maimed by punishment with weapons, leading a pitiable life of slavery, being insulted everywhere by abusive words and suffering intolerable pangs of hunger and thirst.
विशेषार्थ :
श्लोक ७-८. छाया - छाता - क्षत-विक्षत अथवा दुर्वल । चूर्णियों तथा टीकाओं में पाठान्तरों के आधार पर छाया ते विगलिंदिया के विभिन्न अर्थ हैं -शोभारहित; अपने विषय को ग्रहण करने में असमर्थ, इन्द्रियविकल, काने, अंधे, गूंगे, बहरे आदि; भूख से दुर्बल व असमर्थ ; कृशकाय ; चाबुक की मार के निशान से भरे शरीर वाले; अपूर्ण इन्द्रियों वाले आदि ।
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ELABORATION:
(7, 8) Chhaya - vigalitendiya-maimed or weak and disabled; in the commentaries this term has been interpreted differently according to different readings – repulsive, disabled, one eyed, blind, deaf, dumb, weak and emaciated by hunger; cadaverous, filled with laceration marks, deformed, etc.
नवम अध्ययन : विनय समाधि (दूसरा उद्देशक) Ninth Chapter Vinaya Samahi (2nd Sec.) ३११
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