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८ : जो पव्वयं सिरसा भित्तुमिच्छे सुत्तं व सीहं पडिबोहइज्जा । जो वा दए सत्तिअग्गे पहारं एसोवमाऽऽ सायणया गुरूणं ॥
कठिन पर्वत को मस्तक की टक्कर से फोड़ने, सोते हुए सिंह को जगाने तथा भाले की तीक्ष्ण धार पर अपने हाथ का प्रहार करने की इच्छा के समान है गुरुजनों की आशातना करना ॥ ८ ॥
९ : सिआ हु सीसेण गिरिं पि भिंदे, सिआ हु सीहो कुविओ न भक्खे।
सिआ न भिंदिज्ज व सत्तिअग्गं न आवि मुक्खो गुरुहीलणाए ॥
कदाचित् कोई सिर की टक्कर से पर्वत को भी फोड़ दे, क्रुद्ध हुआ सिंह भी कदाचित् न मारे, भाले की धार भी न काटे किन्तु गुरु की अवहेलना करने वाला शिष्य कभी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता ॥ ९ ॥ ( देखें चित्र क्रमांक १९ )
8, 9. Insubordination to the teacher is like the desire to hammer ones head at a rock on the hill, disturb a sleeping lion and slap at the edge of a sharp lance.
It is possible that someone may shatter a rock by hammering with his head, an angry lion may not kill and the sharp edge of a lance may not cut, but neglect of the teacher will certainly harm the cause of liberation. (illustration No. 19)
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१० : आयरिअपाया पुण अप्पसन्ना अबोहिआसायण नत्थि मोक्खो । तम्हा अणाबाहसुहाभिकंखी गुरुप्पसायाभिमुहो रमिज्जा ॥
पूज्य आचार्यों को अप्रसन्न करने वाला व्यक्ति बोधि-लाभ प्राप्त नहीं कर सकता तथा वह मोक्ष के सुख को भी प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए मोक्ष - सुख की इच्छा करने वाले मुनि का कर्त्तव्य है कि वह अपने गुरुओं की कृपा प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहे॥१०॥
10. A person who displeases revered acharyas can never gain enlightenment and so the bliss of liberation is beyond नवम अध्ययन : विनय समाधि (प्रथम उद्देशक) Ninth Chapter: Vinaya Samahi (Ist Sec.) ३०३
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