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आशीविष सर्प भी क्रुद्ध होने पर प्राण नाश से अधिक और क्या अहित कर सकता है ? परन्तु पूज्यपाद आचार्य तो अप्रसन्न होने पर अबोधि के कारण बनते 2 हैं। अतः आचार्य की आशातना करने से कभी मोक्ष नहीं मिल सकता है।।५।।
5. The maximum harm that a highly poisonous snake can a do is to kill someone by its venom. But if an acharya becomes
angry he deprives one of knowledge or enlightenment, the only means of liberation. ६ : जो पावगं जलिअमवक्कमिज्जा आसीविसं वा वि हु कोवइज्जा।
जो वा विसं खायइ जीविअट्ठी एसोवमासायणया गुरूणं॥ ७ : सिआ हु से पावय नो डहिज्जा आसीविसो वा कुविओ न भक्खे। .. सिआ विसं हालहलं न मारे न आवि मुक्खो गुरुहीलणाए॥
जो साधु आचार्य की आशातना करता है, वह मानो जलती हुई अग्नि को लाँघने, जहरीले सर्प को क्रुद्ध करने तथा जीने की इच्छा से तत्काल प्राणहारी हलाहल नामक विष को खाने जैसी मूर्खता करता है॥६॥
संभव है कदाचित् धधकती हुई प्रचण्ड अग्नि भी भस्म न करे, छेड़ा हुआ क्रुद्ध सर्प भी न काटे तथा खाया हुआ हलाहल विष भी न मारे, परन्तु गुरु की आशातना करने वाले शिष्य को मोक्ष मिलना संभव नहीं है॥७॥ ___6, 7. An ascetic who indulges in the act of insubordination of his teacher is in fact committing a mistake like crossing through leaping flames or disturbing a poisonous snake or consuming a fatal poison with a hope that he would still survive.
There are chances that the leaping flames may not turn him to ashes, a disturbed snake may not bite and a fatal poison may not kill, but neglect of the teacher will certainly harm the cause of liberation.
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श्री दशवैकालिक सूत्र : Shri Dashavaikalik Sutra
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