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and could be used to make a beautiful stool, bench and KA palanquin or things like gates for use in the abode of ascetics.
३0 : तहेव गंतुमुज्जाणं पव्वयाणि वणाणि अ।
रुक्खा महल्ल पेहाए एवं भासिज्ज पन्नवं॥ ३१ : जाइमंता इमे रुक्खा दीहवट्टा महालया।
पयायसाला विडिमा वए दरिसणि त्ति य॥ इसी प्रकार उद्यानों, पर्वतों तथा वनों में गया हुआ साधु वहाँ पर खड़े विशालकाय वृक्षों को देखकर यदि जरूरत हो तो सूत्रोक्त रीति से निरवद्य भाषा
का प्रयोग करे॥३०॥ ___ जैसे कि ये वृक्ष उत्तम जाति के हैं, ऊँचे हैं, गोल हैं, विस्तार वाले हैं, अनेक शाखा और प्रशाखा वाले हैं और दर्शनीय हैं॥३१॥
30, 31. After seeing large trees in gardens, hills or jungles, if at all he wants to make a comment he should use benign words or language that conforms to the rules laid down in scriptures.
For example—These are very good quality trees, these trees are tall, well rounded, well spread, lush with numerous branches and beautiful.
३२ : तहा फलाइं पक्काई पायखज्जाइं नो वए।
वेलोइयाइं टालाइं वेहिमाइ त्ति नो वए॥ ३३ : असंथडा इमे अंबा बहुनिवडिमा फला।
वइज्ज बहुसंभूया भूयरूव त्ति वा पुणो॥ फल आदि के सम्बन्ध में भी साधु ऐसी भाषा न बोले कि फल पके हुए हैं या पकाकर खाने योग्य हैं, तुरंत तोड़ने योग्य हैं, इनमें गुठली नहीं है, ये सुकोमल हैं और फाँक करने योग्य हैं॥३२॥
आवश्यक होने पर साधु इस प्रकार बोल सकता है-ये आम्र वृक्ष फल भार सहने में असमर्थ हैं, इनमें गुठलियों वाले फल बहुत अधिक लगे हुए हैं, इनके
श्री दशवैकालिक सूत्र : Shri Dashavaikalik Sutra
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