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चाहिए। सारांशतः, पाँचों इन्द्रियों के अनुकूल विषयों में राग न करे और प्रतिकूल विषयों पर द्वेष न करे। . ELABORATION:
(26) The first half of the verse refers to the sense of hearing and the second to the sense of touch. This is indicative of disciplining the other three senses as well. The theme being—one should be equanimous towards pleasure and pain.
२७ : खुहं पिवासं दुस्सिज्जं सीउण्हं अरई भयं।
अहिअसे अव्वहिओ देहदुक्खं महाफलं ॥ साधु को चाहिए कि वह भूख, प्यास, कष्टपूर्ण शय्या, शीत, उष्ण, अरति एवं भय आदि कष्ट उत्पन्न होने पर कभी व्यथित नहीं हो अपितु पूर्ण दृढ़तापूर्वक इन आये हुए दुःखों को सहन करे। क्योंकि शरीर से सम्बन्ध रखने वाले कष्टों को समभावपूर्वक सहने से ही मोक्षरूप महाफल की प्राप्ति होती है॥२७॥
27. A shraman should not be moved by afflictions like hunger, thirst, uncomfortable bed, cold, heat, austerities, fear, etc.; instead, he should tolerate these with determination. This is because tolerance of physical pain with equanimity leads to the lofty attainment that is liberation.
२८ : अत्यंगयम्मि आइच्चे पुरच्छा य अणुग्गए।
___ आहारमाइअं सव्वं मणसा वि न पत्थए॥ सूर्यास्त होने से लेकर प्रातःकाल जब तक सूर्योदय न हो तब तक साधु को सभी प्रकार के आहाररूप पदार्थों की मन से भी इच्छा नहीं करनी चाहिए॥२८॥
28. From dusk to dawn an ascetic should not even desire for anything to eat.
२९ : अतिंतिणे अचवले अप्पभासी मिआसणे।
हविज्ज उयरे दंते थोवं लध्दं न खिसए॥
आठवाँ अध्ययन : आचार-प्रणिधि Eight Chapter : Ayar Panihi
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AHARA
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