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३१ : से जाणमजाणं वा कटु आहम्मियं पयं।
. संवरे खिप्पमप्पाणं बीयं तं न समायरे॥ जाने या अनजाने में भी यदि कभी कोई अधार्मिक कार्य हो जाये, तो साधु को योग्य है कि शीघ्र ही उस पाप से अपनी आत्मा को दूर हटा ले, खींच ले और भविष्य में फिर वह कार्य दुबारा कभी नहीं करे॥३१॥
31. Knowingly or unknowingly if an ascetic commits some irreligious act, it is proper for him to withdraw himself from that sin without any delay and make sure that never in future he indulges in any such activity.
३२ : अणायारं परक्कम्म नेव गूहे न निन्हवे।
सुई सया वियडभावे असंसत्ते जिइंदिए॥ पवित्र बुद्धि वाला, कभी कोई पाप नहीं छुपाने वाला, किसी प्रकार का प्रतिबंध न रखने वाला तथा चंचल इन्द्रियों पर नियंत्रण रखने वाला साधु, संयम | में किसी प्रकार का दोष लगने पर गुरुदेव के समक्ष पाप की आलोचना करे और आलोचना करते समय दोष को थोड़ा-बहुत स्थूल रूप से गोलमाल भाषा में न कहे तथा सर्वथा ही छिपाने का प्रयास न करे॥३२॥
32. If a pious, transparent, frank and disciplined ascetic finds some shortcoming in his conduct, he should critically review that fault before his guru. During this review he should try neither to reduce nor conceal the gravity of the fault by clever use of language.
३३ : अमोहं वयणं कुज्जा आयरियस्स महप्पणो।
तं परिगिज्झ वायाए कम्मुणा उववायए॥ विनयशील साधु का कर्तव्य है कि वह महान् आत्मा आचार्यों की आज्ञा व आदेश वचन को व्यर्थ न जाने दे अर्थात् आदरपूर्वक स्वीकार करे और तत्पश्चात् शीघ्र ही कर्म द्वारा उसका आचरण कर सफल करे॥३३॥
आठवाँ अध्ययन : आचार-प्रणिधि Eight Chapter : Ayar Panihi
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NitinA
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