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49. An introvert ascetic should only use that language which he has perfected with experience, which is not ambiguous, which is correct and candid, and which can be spoken fearlessly without stammering and with brevity in normal voice. विशेषार्थ :
श्लोक ४९. पडिपुग्न-प्रतिपूर्ण-जो भाषा स्वर, व्यंजन, पद आदि भाषा गुणों से परिपूर्ण हो। व्याकरण के आधार पर सही हो। इससे यह सूचित होता है कि प्रवचन करने वाला मुनि भाषा की शुद्धाशुद्धि एवं लोक-व्यवहार आदि का ज्ञाता होना चाहिए।
वायरल
ELABORATION:
(49) Padipunnam—complete; here it means phonetically and grammatically complete or correct. This also indicates that discourses are to be given by an ascetic who knows his language and grammar as well as the social etiquette. उपहास न करें
५० : आयारपन्नत्तिधरं दिट्ठिवायमहिज्जगं।
वायविक्खलियं नच्चा न तं उवहसे मुणी॥ आचार-प्रज्ञप्ति (आचार के महान ग्रन्थ) के धारक (अथवा आचारांग एवं भगवतीसूत्र के पाठी) एवं दृष्टिवाद नामक पूर्व के पढ़ने वाले बहुश्रुत मुनि भी यदि कभी बोलते समय प्रमादवश वचन से स्खलित हो जाये और अशुद्ध शब्द का प्रयोग कर ले तो उन महापुरुषों का उपहास नहीं करना चाहिए॥५०॥ NEGATION OF MOCKERY
50. If by chance even a highly learned acharya, who is a scholar of the book of conduct, Acharang Sutra and Bhagavati Sutra, and Drishtivad (a Purva), uses a wrong word no ascetic should make fun of him.
५१ : नक्खत्तं सुमिणं जोगं निमित्तं मंत भेसजं।
गिहिणो तं न आइक्खे भूयाहिगरणं पयं॥
आठवाँ अध्ययन :आचार-प्रणिधि Eight Chapter : Ayar Panihi
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Dio
Saro
-CITian
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