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वनस्पतिकाय हिंसा-निषेध
१० : तणरुक्खं न छिंदिज्जा फलं मूलं व कस्सइ।
आमगं विविहं बीयं मणसा वि न पत्थए। ११ : गहणेसु न चिट्ठिज्जा बीएसु हरिएसु वा।
उदगम्मि तहा निच्चं उत्तिंग पणगेसु वा॥ साधु किसी भी प्रकार के तिनके, वृक्ष तथा वृक्षों के फल या मूल का छेदन न ke करे और न ही विविध प्रकार के सचित्त बीजों का सेवन करे। सेवन करना तो
दूर रहा, मन में सेवन करने का संकल्प भी न करे॥१०॥
वृक्षों के घने कुंजों में, बीजों पर, दूब आदि हरी घास पर तथा उदक, उत्तिंग और पनक नामक वनस्पतियों पर साधुओं को कभी भी खड़ा नहीं होना चाहिए।॥११॥ NEGATION OF HARMING PLANT-BODIED BEINGS
10, 11. A shraman should neither cut or pierce grass, trees, | fruits, or roots, nor should he consume various types of sachit
seeds. What to say of consuming, he should not even think of consuming these.
An ascetic should never stand in dense thickets or on seeds, grass or other vegetation, like plankton, mushrooms, moss, etc. विशेषार्थ :
श्लोक ११. उदगम्मि-उदके-उदक का अर्थ जल भी होता है और अनन्तकायिक वनस्पति भी। यहाँ वनस्पति का प्रसंग चल रहा है अतः उसी अर्थ में प्रयुक्त समझना चाहिए।
उत्तिंग-सर्पच्छत्र या कुकुरमुत्ता अथवा चीटियों का विल। पणग-पनक-काई।
आठवाँ अध्ययन : आचार-प्रणिधि Eight Chapter : Ayar Panihi
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