Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Sthanakvasi
Author(s): Shayyambhavsuri, Amarmuni, Shreechand Surana, Purushottamsingh Sardar, Harvindarsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan

Previous | Next

Page 321
________________ Surinary Gwanima karima Guutwal मृदु-मितभाषी बनें ५५ : सुवक्कसुद्धिं समुपेहिया मुणी गिरं च दुटुं परिवज्जए सया। KO मियं अदुटुं अणुवीइ भासए सयाण मज्झे लहई पसंसणं॥ __जो मुनि भाषा की शुद्धि के समस्त भेद-प्रभेदों का पूर्णतया चिन्तन करके निन्दित भाषा को तो छोड़ देता है और बोलने से पहले ही हानि-लाभ का पूर्ण विचार करके फिर दुष्टतारहित हित, मित, भाषा बोलता है। ऐसा मुनि सत्पुरुषों kkas में प्रशंसा प्राप्त करता है।।५५।। USE PLEASING AND SWEET LANGUAGE 55. The shraman who contemplates on all the attributes of pure and pious language, refrains from using bad language, considers the consequences before speaking and then, speaks without viciousness and with brevity and goodwill, draws 2 praise from the sages न ५६ : भासाए दोसे अ गुणे य जाणिआ तीसे अ दुढे परिवज्जए सया। छसु संजए सामणिए सया जए वइज्ज बुद्धे हियमाणुलोमिअं॥ __ सदा षट्कायिक जीवों की रक्षा करने वाला तथा संयम में पुरुषार्थ करने वाला सम्यग्ज्ञानी मुनि, पिछले प्रकरण में कहे भाषा के गुण और दोषों को अच्छी प्रकार जानकर, दुष्ट व कठोर भाषा को तो छोड़ दे और काम पड़ने पर केवल स्व-पर हितकारी एवं आनुलोमिक-अनुकूल मधुर भाषा ही बोले ॥५६॥ 56. A sagacious ascetic who is ever indulgent in discipline and protecting the six classes of beings should learn all the qualities and errors of language and then refrain from using harsh and vicious language. When necessary he should use pleasing and sweet language that benefits self as well as others. ५७ : परिक्खभासी सुसमाहिइंदिए चउक्कसायावगए अणिस्सिए। स निद्भुणे धुन्नमलं पुरेकडं आराहए लोगमिणं तहा परं॥ त्ति बेमि। KAN सातवाँ अध्ययन : सुवाक्य शुद्धि Seventh Chapter : Suvakkasuddhi २५७ SHARE Gymummy Layuuuwww Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498