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पृथ्वीकाय हिंसा-निषेध
२ : पुढवि-दग-अगणि-मारुअ तणरुक्ख सबीयगा।
... तसा य पाणा जीव त्ति इइ वुत्तं महेसिणा॥ ३ : तेसिं अच्छणजोएण निच्चं होयव्वयं सिआ।
मणसा कायवक्केण एवं हवइ संजए॥ महर्षि भगवान महावीर ने बताया है-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और तृण-वृक्ष-बीज आदि वनस्पति तथा नाना प्रकार के त्रस प्राणी, ये सभी चेतना स्वभाव वाले जीव हैं ॥२॥
पूर्वोक्त जीवों के साथ साधु मन, वचन और शरीर के योग से सदा अहिंसक प्रवृत्ति से ही व्यवहार करे। क्योंकि ऐसा करने से ही साधु संयत या सच्चा संयमी हो सकता है॥३॥ NEGATION OF HARMING EARTH-BODIED BEINGS
2, 3, The great sage Bhagavan Mahavir has said-Earth, water, fire, air, plants including grass, trees and seeds and all varieties of mobile beings are all sentient beings.
The interaction of a shraman with all these, through mind, body and speech, should be governed by a non-violent clement attitude. Because only by doing so a shraman can truly become disciplined. विशेषार्थ :
श्लोक ३. अच्छण जोएण-अक्षणयोगेन-क्षण का अर्थ हिंसा होता है तथा योग का अर्थ सम्बन्ध अथवा व्यापार। अतः जिसका व्यवहार अहिंसक हो उसे अक्षणयोग कहते हैं। ELABORATION: (3) Acchan joyena-amalgamation (of behavior) with ahimsa. ४ : पुढविं भित्तिं सिलं. लेखें नेव भिंदे न संलिहे।
तिविहेण करणजोएण संजए सुसमाहिए॥
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श्री दशवैकालिक सूत्र : Shri Dashavaikalik Sutra
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