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जो गुण-दोष की परीक्षा करके बोलने वाला है, जो समस्त इन्द्रियों को अपने वश में रखने वाला है, जो चार कषायों का पूर्ण निरोध करने वाला है, वही अनिश्रित-तटस्थ वृत्ति वाला साधु, पूर्वजन्मोपार्जित कर्ममल को दूर कर लोक और परलोक दोनों की सम्यक् प्रकार से आराधना करता है ।।५७॥
ऐसा मैं कहता हूँ।
57. Only that impartial ascetic removes the karmic dust collected during earlier births and benefits this and the next birth, who speaks only after weighing consequences, has disciplined all his senses and has complete control over the four passions. . . . . . So I say.
उपसंहार
वाक्य शुद्धि का यह वर्णन धर्म एवं नीति दोनों दृष्टियों से किया गया है।
मुनि ऐसी भाषा नहीं बोले, जिसमें किसी जीव की हिंसा का सम्बन्ध जुड़ता हो। यह अहिंसा धर्म की सूक्ष्म दृष्टि है। तथा विचारपूर्वक बोले, हित, मित प्रिय, मनोहर, अनुलोमअनुकूल लगने वाला निःशंकित वचन बोले-यह नीति तथा लोक व्यवहार की दृष्टि है। मुनि पहले धर्म की दृष्टि से विचारकर, फिर नीति दृष्टि से और फिर दोनों दृष्टियों का समन्वित विचारकर भाषा का प्रयोग करे--यही प्रस्तुत अध्ययन का प्रतिपाद्य है। Conclusion
This elaboration of the purity of speech has been done from religious as well as ethical viewpoints. An ascetic should not use a language that in any way inspires harm to beings. This is the subtle application of religion of ahimsa. He should use sweet, pleasing and beneficent and unambiguous language. This is the ethical and behavioral application. An ascetic should first consider the religious angle and then the ethical angle. His use of language should be based on a judicious amalgamation of these two considerations. This is the subject discussed in this chapter.
॥ सातवाँ अध्ययन समाप्त ॥ END OF SEVEN CHAPTER
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श्री दशवैकालिक सूत्र : Shri Dashavaikalik Sutra
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