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dire need. This is because these conditions offset the chances of the above faults. १७. स्नान-निषेध ६१ : वाहिओ वा अरोगी वा सिणाणं जो उ पत्थए।
वुक्तो होइ आयारो जढो हवइ संजमो॥ ६२ : संतिमे सुहुमा पाणा घसासु भिलगासु य।
जे अ भिक्खू सिणायंतो वियडेणुप्पिलावए। ६३ : तम्हा ते न सिणायंति सीएण उसिणेण वा।
जावज्जीवं वयं घोरं असिणाणमहिटगा। जो कोई साधु चाहे स्वस्थ हो या अस्वस्थ होने पर भी यदि स्नान की इच्छा करता है, वह अपने साधु आचार (काय-क्लेश आदि. बाह्यतप) से एवं संयम (-प्राणि रक्षारूप) से सर्वथा भ्रष्ट हो जाता है॥६१॥
शषिर (पोली) तथा राजियुक्त (दरारों वाली) भूमि में अनेक प्रकार के सुक्ष्म जीव रहते हैं, अतः चाहे कोई प्रासुक जल से भी स्नान करे, तो भी उन जीवा के उत्प्लावन (डूबने) से विराधना अवश्य होती ही है।।६२॥
इस कारण साधु ठंडे पानी से अथवा गर्म पानी (प्रासुक पानी से) कदापि स्नान नहीं करते। वे जीवन पर्यन्त इस “अस्नान व्रत" नामक घोर व्रत का पूर्ण रूप में पालन करते हैं॥६३॥ 17. NEGATION OF BATHING
61, 62, 63. An ascetic who desires to take a bath, irrespective of being healthy or ailing, falls from the lofty ideals of his conduct of austerities as well as his discipline of not harming life forms.
The porous earth with numerous cracks is infested with a variety of beings. Therefore, even if one uses achit water for
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श्री दशवकालिक सूत्र : Shri Dashavaikalik Sutra
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