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१३. अकल्प ग्रहण वर्जन
४७ : जाइं चत्तारिऽभोज्जाइं इसिणाऽहारमाईणि।
ताई तु विवज्जंतो संजमं अणुपालए॥ साधु के लिए जो चार प्रकार के आहार (आगे बताये हुए) आदि पदार्थ अकल्पनीय हैं, उन चारों को छोड़ता हुआ मुनि अपने संयम की शुद्ध परिपालना करे॥४७॥ 13. NEGATION OF ACCEPTING THE PROHIBITED
47. An ascetic should faultlessly follow his discipline by rejecting all the four types of things including food that are prohibited for him (as stated earlier). विशेषार्थ :
श्लोक ४७. अभोज्जाइं-अकल्पनीय-जो भोजन-पानी, शय्या (ठहरने का स्थान), वस्त्र और पात्र साधु के लिए लेना विधि-सम्मत न हो तथा संयम में हानि पहुँचाता हो उसे अकल्पनीय कहते हैं।
मूलगुणों की रक्षा के लिए उत्तरगुण होते हैं। यहाँ अकल्प नामक उत्तरगुण की चर्चा है। अकल्प के दो भेद हैं-शैक्ष-स्थापना अकल्प और अकल्प-स्थापना अकल्प। जो शिष्य आहार, शय्या, वस्त्र, पात्र आदि ग्रहण करने की विधि से सम्यक् रूप से परिचित न हो उसके द्वारा लाया आहार आदि शैक्ष-स्थापना अकल्प है तथा दोष सहित वस्तुएँ ग्रहण करना अकल्पस्थापना अकल्प है।
ELABORATION:
(47) Abhojjaim-prohibited; the things which are not acceptable to an ascetic according to the codes of conduct and which are also detrimental to the observance of discipline.
Those which are helpful in preserving and enhancing basic virtues are called complementary virtues. Rejection of the prohibited is one such complementary virtue. Its two categories are--shaiksh-sthapana akalp or the things brought by a disciple
छठा अध्ययन : महाचार कथा Sixth Chapter : Mahachar Kaha
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