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१२. सकाय हिंसा - निषेध
४४ : तसकायं न हिंसंति मणसा वयसा कायसा । तिविहेण करणजोएण संजया सुसमाहिया ॥ ४५ : तसकायं विहिंसंतो हिंसई उ तयस्सिए । तसे य विविहे पाणे चक्खुसे अ अचक्खुसे ॥
जिनके सब प्रकार के कषायभाव शान्त है, संयम में रत हैं, ऐसे साधु मन, वचन और कायरूप त्रिकरण से एवं कृत, कारित और अनुमोदन त्रिविध योग से कभी भी सकाय की हिंसा नहीं करते ॥ ४४ ॥
जबसब
४६ : तम्हा एवं वियाणित्ता दोसं दुग्गइवड्ढणं । तसकायसमारंभं जावज्जीवाइं वज्जए ॥
सकाय की हिंसा करता हुआ उसके आश्रित रहने वाले स- स्थावर, सूक्ष्म - बादर आदि अन्य प्राणियों की भी हिंसा करता है ॥४५ ॥
इसलिये सकाय की हिंसा को दुर्गति दोष को बढ़ाने वाला जानकर, साधु को सकाय के समारम्भ का सर्वथा जीवन पर्यन्त परित्याग कर देना चाहिए॥४६॥
12. NEGATION OF HARMING MOBILE BEINGS
44, 45, 46. A disciplined shraman never harms any mobile being through any of the three means-mind, speech or body or any of the three methods-do, induce or approve.
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One who does so does not harm mobile beings alone but also puts to harm a variety of visible and invisible mobile and immobile beings that are dependent on mobile beings.
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Understanding well that harming life is a terrible fault that leads to bad rebirth, an ascetic should refrain from harming mobile beings throughout his life.
श्री दशवैकालिक सूत्र : Shri Dashavaikalik Sutra
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