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AURIDIUM
THE NEGATION OF DECEPTION
35. Some unworthy ascetic, when he gets tasty and rich food, goes to a solitary place and eats it all. He brings only the left over and repugnant food to the upashraya.
३६ : जाणंतु ताइमे समणा आययट्ठी अयं मुणी।
संतुट्ठा सेवए पंतं लूहवित्ती सुतोसओ॥ ३७ : पूयणट्ठा जसोकामी माणसम्माणकामए।
बहुं पसवई पावं मायासल्लं च कुव्वइ॥ रस में लोलुपता रखने वाला वह साधु ऐसे भाव रखता है कि 'ये उपाश्रय में रहने वाले अन्य साधु यह समझें कि यह साधु कैसा संतोषी और मोक्षार्थी है जो इस प्रकार के रूखे-सूखे असार पदार्थों से ही संतोष कर लेता है। जैसा मिल जाता है वैसा ही खा पीकर सन्तुष्ट हो जाता है।' पूजा, यश और मान-सम्मान की झूठी कामना करने वाला वह साधु इस प्रकार का कपट आचरण करके अत्यन्त भयंकर पापकर्मों का बन्धन करता है तथा मायारूपी शल्य उत्पन्न कर लेता है॥३६-३७॥
36, 37. Such an indulgent ascetic thinks—These other ascetics staying in the upashraya will take me to be a contented ascetic desirous of liberation. They will think that he is content with dry, simple and worthless things. That he satisfies himself eating and drinking whatever he gets.' Driven by the desire for such false reverence, praise and respect, he indulges in deceitful conduct and attracts the bondage of acute and terrible sinful karmas and is pierced by the thorn of deceit. विशेषार्थ :
श्लोक ३६, ३७. मायासल्लं-माया-शल्य-शल्य के कई अर्थ हैं-शस्त्र या हथियार, बाण की नोंक अथवा कांटा। जिस प्रकार शरीर में घुसी हुई अस्त्र की नोंक निरन्तर पीड़ा पहुँचाती है उसी प्रकार पापकर्म मन को व्यथित करते रहते हैं इसलिए उन्हें शल्य कहा जाता है। पंचम अध्ययन : पिण्डैषणा (द्वितीय उद्देशक) Fifth Chapter : Pindaishana (2nd Section) १८३
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