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८. अप्काय हिंसा-निषेध
३0 : आउकायं न हिंसंति मणसा वयसा कायसा।
तिविहेण करणजोएण संजया सुसमाहिया॥ ३१ : आउकायं विहिंसंतो हिंसई उ तयस्सिए।
तसे अ विविहे पाणे चक्खुसे य अचक्खुसे॥ ३२ : तम्हा एअं वियाणित्ता दोसं दुग्गइवड्ढणं।
आउकायसमारंभं जावज्जीवाए वज्जए॥ समाधिभाव में रमण करने वाले साधु, अप्काय के जीवों की भी तीन करण और तीन योग से कभी हिंसा नहीं करते॥३०॥ ___ अप्काय की हिंसा करता हुआ मनुष्य, उसके आश्रित अनेक प्रकार के त्रस
और स्थावर, चाक्षुष और अचाक्षुष अन्य प्राणियों की भी हिंसा करता है॥३१॥ ___इसलिए इसे दुर्गति को बढ़ाने वाला जानकर, साधु को अपकाय के समारम्भ का यावज्जीवन के लिए परित्याग कर देना चाहिए॥३२॥ 8. NEGATION OF HARMING WATER-BODIED BEINGS
30, 31, 32. A disciplined shraman never harms any waterbodied being through any of the three means--mind, speech or body or any of the three methods-do, induce or approve.
One who does so does not harm water-bodied beings alone but also puts to harm a variety of visible and invisible mobile and immobile beings that are dependent on water.
Understanding well that harming life is a terrible fault that leads to bad rebirth, an ascetic should refrain from harming water-bodied beings throughout his life. ९. अग्निकाय हिंसा-निषेध
३३ : जायतेअं न इच्छंति पावगं जलइत्तए।
तिक्खमन्नयरं सत्थं सव्वओ वि दुरासयं॥
छठा अध्ययन : महाचार कथा Sixth Chapter :Mahachar Kaha
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