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२६ : एअं च दोसं दट्टेणं नायपुत्तेण भासि।
सव्वाहारं न भुंजति निग्गंथा राइभोयणं॥ पाप से बचने वाला साधु दिन में तो सचित्त जल से आई और बीजादि से मिश्रित आहार को छोड़ सकता है तथा पृथ्वी पर जो अनेक प्रकार के सूक्ष्म जीव भ्रमण करते रहते हैं, उनकी रक्षा कर सकता है, परन्तु रात्रि में कैसे कर सकता है ? यह सम्भव नहीं है॥२५॥
ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ने रात्रि-भोजन के दोषों को सम्यकरूप से देख-जानकर कहा-स्व-परहित की आकांक्षा रखने वाला मुनि रात्रि में कभी भी किसी प्रकार का भोजन नहीं करते।।॥२६॥
25, 26. An ascetic desirous of saving himself from sinful activities can, during the day, reject food that is mixed with seeds or moist with fresh water; he can also avoid causing any harm to the numerous minute creatures crawling on the ground. But how can he do that during the night? (That is not possible.)
Observing and understanding properly the faults of eating during the night, Jnataputra Bhagavan Mahavir said—The ascetics desirous of welfare of the self and others never eat anything during the night. ७. पृथ्वीकाय हिंसा-निषेध २७ : पुढविकायं न हिंसंति मणसा वयसा कायसा।
तिविहेणं करणजोएण संजया सुसमाहिया॥ २८ : पुढविकायं विहिंसंतो हिंसई उ तयस्सिए।
तसे अ विविहे पाणे चक्खुसे अ अचक्खुसे॥ समाधिभाव में स्थिर रहने वाले मुनि मन, वचन और कायरूप तीनों योगों से तथा कृत, कारित और अनुमोदितरूप तीनों करणों से कभी भी पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा नहीं करते॥२७॥
छठा अध्ययन : महाचार कथा Sixth Chapter : Mahachar Kaha
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