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३४ : अत्तट्ठागुरुओ लुद्धो बहुं पावं पकुव्वई।
दुत्तोसओ य से होइ निव्वाणं च न गच्छइ॥ जो साधु वन्दना नहीं करने वालों पर अप्रसन्न या कुपित नहीं होता और (राजा आदि बड़े आदमियों द्वारा) वन्दना करने पर अहंकार नहीं करता है उसी साधु का श्रमणधर्म सुरक्षित रहता है।॥३२॥ ____ “यदि सरस आहार गुरुदेव देख लेंगे तो स्वयं ही ले लेंगे मुझे नहीं देंगे," इस लोभयुक्त घृणित विचार से यदि कोई साधु लाए हुए सरस आहार को नीरस आहार से ढाँपता है, छुपा लेता है। जो केवल अपने ही स्वार्थ को मुख्य समझता है, ऐसा रसलोलुप साधु, बहुत अधिक पापकर्म का बंधन करता है। यही नहीं, वह किसी वस्तु से सन्तुष्ट नहीं होता तथा निर्वाण-पद भी नहीं प्राप्त कर सकता है॥३३-३४॥
32, 33, 34. The ascetic who is not annoyed or angry at those who do not bow before him and is not elated or proud when people of high status bow before him is truly established in the shraman dharma.
"If the guru sees this rich food he will take all and leave nothing for me." If, with this lowly and greedy idea, an ascetic hides the rich food he has brought, under repulsive simple food, he enters the deep bondage of sinful karmas. Such a selfish and indulgent ascetic is never contented, no matter what he gets. He can never attain liberation. मायाचार का निषेध
३५ : सिया एगइओ लधुं विविहं पाणभोयणं।
भद्दगं भद्दगं भोच्चा विवण्णं विरसमाहरे॥ कोई विवेकशून्य साधु ऐसा भी करता है कि भिक्षा में तरह-तरह के स्वादिष्ट भोजन-पान मिलने पर सरस पदार्थ तो वहीं एकान्त में बैठकर खा-पी लेता है और बचा हुआ असार एवं विरस आहार उपाश्रय में लाता है॥३५॥
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श्री दशवैकालिक सूत्र : Shri Dashavaikalik Sutra
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