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AURATION
विशेषार्थ :
श्लोक ४८. तवतेणे-तप का चोर-इसका भावार्थ यह है कि जो साधु तपस्वी नहीं है, किन्तु लोकों में तपस्वी की तरह अपने को पुजाता है। इसी प्रकार वचन का चोर वह है जो धर्मकथा नहीं करके भी स्वयं को धर्मकथी के रूप में पुजवाता है। उत्कृष्ट आचार सम्पन्न न होकर भी उच्च आचारी कहलवाता है इस प्रकार मायाचार करने वाला क्रमशः तप का चोर, वाणी का चोर, रूप का चोर और आचार का चोर कहलाता है।
देवकिब्रिसं-दैवकिल्विषम्-अधम जाति के देव को देव किल्विष कहते हैं। ऐसे देव के रूप में उत्पन्न होने योग्य कर्म या भाव दैवकिल्विष कहलाता है। स्थानांगसूत्र (४/५७०) के अनुसार अरिहन्त-प्रज्ञप्त धर्म, आचार्य-उपाध्याय और चार तीर्थ के प्रति अपशब्द बोलने वाला व्यक्ति इस कर्म का बंधन करता है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार ज्ञान, केवली, धर्माचार्य, संघ और साधुओं का अवर्णवाद बोलने वाला तथा माया करने वाला इस कर्म का बंधन करता है। (उत्त. ३६/२६४)
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ELABORATION:
Tavtene—thief of tap; it means who gets himself worshipped as an austere person in spite of not being so. In the same way a thief of speech is one who gets himself worshipped as a preacher in spite of not being so, and a thief of conduct is one who gets himself worshipped as a man of high conduct in spite of not being so. Thus these are different names of an ascetic who resorts to such duplicity.
Dev kivvisam—the lowest class of gods is known as Kilvish dev. The karmas that lead to a rebirth as such gods are known as daivakilvish karmas. According to Sthanang Sutra. (4/570), one who speaks ill of the dharma propagated by the Arihant, acharya, upadhyaya or the four fold teerth (shraman, shramani, shravak, shravika) earns these karmas. According to the Uttaradhyayan Sutra (36/264) one who is deceitful and speaks ill of jnana, omniscient, acharya, religious organization and ascetics earns these karmas. ४९ : लक्ष्ण वि देवत्तं उववन्नो देवकिब्बिसे।
तत्था वि से न याणाइ किं मे किच्चा इमं फलं? ॥
| पंचम अध्ययन : पिण्डैषणा (द्वितीय उद्देशक) Fifth Chapter : Pindaishana (2nd Section)
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