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ऐसा साधक भिक्षु श्रेष्ठ गुणों वाले संयमी तत्त्वज्ञ मुनियों के पास विनय भक्ति से भिक्षैषणा-शुद्धि का सम्यग्ज्ञान प्राप्त करे, भली प्रकार इन्द्रियों का निग्रह करने वाली अनाचार सेवन से लज्जा रखने वाली एषणासमिति की समाचारी का विशुद्ध रूप से पालन करता हुआ आनन्दपूर्वक संयममार्ग में विचरण करे ॥ ५२ ॥
ऐसा मैं कहता हूँ ।
52. Such disciplined ascetic should humbly learn about faultless alms-collecting from the virtuous, disciplined and learned sages. He should then be steadfast in observing the conduct of Eshanasamiti which inspires to discipline the senses and refrain from undisciplined activity.... So I say.
उपसंहार
आचार्यश्री आत्माराम जी म. इस अध्ययन की महत्ता बताते हुए कहते हैं- " साधु को सबसे प्रथम भिक्षैषणा के ज्ञान की अत्यन्त आवश्यकता है। क्योंकि भिक्षेषणा के ज्ञान से ही आहार की शुद्धि होती है और शुद्ध आहार से ही प्रायः शुद्ध मन रह सकता है। जब मलिन मन शुद्ध हो गया तो चंचल इन्द्रियाँ अपने आप कुमार्ग-गमन से रुक जायेंगी और जिस समय इन्द्रियाँ कुमार्ग-गमन से रुक गईं तो फिर मोक्ष अपने हाथ ही में है।" (दशवे, पृष्ठ ३०७ )
Conclusion
Acharyashri Atmaram ji M. revealing the importance of this chapter states, "For an ascetic the first and prime necessity is to learn the proper way of alms-collection. Because this helps him collect pure food and purity of food is a must for maintaining the purity of mind. When a tarnished mind becomes pure, the ever wavering senses will automatically be disciplined and checked from going into wrong direction. And when this is attained, the path of liberation is not very far." (Dashavaikalik Sutra by Acharyashri Atmaram ji M.)
॥ पाँचवें अध्ययन का दूसरा उद्देशक समाप्त ॥
END OF THE SECOND SECTION OF FIFTH CHAPTER | पाँचवा अध्ययन समाप्त ॥ END OF FIFTH CHAPTER
पंचम अध्ययन : पिण्डेषणा (द्वितीय उद्देशक) Fifth Chapter: Pindaishana (2nd Section)
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