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any of them accepts the invitation, he should eat the food happily with the guest. ९६ : अह कोइ न इच्छिज्जा तओ भुंजिज्ज एक्कओ।
आलोए भायणे साहू जयं अपरिसाडियं॥ यदि बार-बार आग्रहपूर्वक निमंत्रण देने पर भी कोई साधु भोजन करने के लिये तैयार न हो तो फिर मुनि अकेला ही प्रकाशमय खुले पात्र में (चौड़े मुँह वाला पात्र), यतनापूर्वक इधर-उधर बिना बिखेरे भोजन करे॥१६॥
96. If none of the ascetics is interested in sharing his food even after this request, he should eat alone from a wide and open pot carefully and without splattering around. ९७ : तित्तगं व कडुअं व कसायं अंबिलं व महुरं लवणं वा।
एअ लद्धमन्नट्ठ पउत्तं महुघयं व भुंजिज्ज संजए॥ संयमी साधु वही भोजन ग्रहण करे जो गृहस्थ ने अपने लिए बनाया हो और जो आगम में बताई विधि से लिया हुआ हो। फिर चाहे वह तीखा हो, कड़वा हो, कषैला हो, खट्टा हो, मीठा हो, खारा हो, चाहे भोजन कैसा ही हो उसी को मधु-घृत के समान (रसयुक्त) मानता हुआ प्रसन्नतापूर्वक खावे॥९७॥ ____97. The disciplined shraman should eat only that food which a householder has prepared for himself and has been collected conforming to the procedure mentioned in Agams. He should eat it happily, considering it to be good and tasty, like butter and honey, irrespective of the fact that it is hot, bitter, astringent, sour, sweet or salty. ९८ : अरसं विरसं वा वि सूइयं वा असूइयं।
उल्लं वा जइ वा सुक्कं मन्थु-कुम्मास-भोयणं॥ ९९ : उप्पण्णं नाइहीलिज्जा अप्पं वा बहु फासुयं।
मुहालद्धं मुहाजीवी भुंजिज्जा दोसवज्जिअं॥ पंचम अध्ययन : पिण्डैषणा (प्रथम उद्देशक) Fifth Chapter : Pindaishana (Ist Section) १५९
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