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deny and explicitly state that such impure water is not a acceptable to him.
८0 : तं च होज्ज अकामेणं विमणेण पडिच्छि।
तं अप्पणा न पिबे नोवि अन्नस्स दावए। यदि पूर्वोक्त प्रकार के अग्राह्य पानी बिना इच्छा के और बिना मन के अर्थात्
असावधानता से ग्रहण कर लिया हो, तो साधु का कर्तव्य है कि उस जल को न KES तो स्वयं पीवे और न दूसरों को पिलावे।।८०॥ Ka 80. If by chance he has unintentionally and unwillingly kn
accepted such water due to the insistence of the donor, it is the duty of the ascetic neither to drink it himself nor give it to others to drink.
८१ : एगंतमवक्कमित्ता अचित्तं पडिलेहिया।
जयं परिट्ठविज्जा परिठ्ठप्प पडिक्कमे॥ किन्तु एकान्त स्थान पर जाकर, निर्दोष जीवरहित स्थान की प्रतिलेखना करके, यतनापूर्वक उस पानी को परठ दे (धीरे से फेंक दे) और परठकर प्रतिक्रमण कर ले ॥८१॥
81. Instead, he should go to some isolated place, find a proper place free of living organisms and carefully discard it. | After discarding it he should do the prescribed Pratikraman
(critical review). विशेषार्थ :
श्लोक ८१. अचित्तं-यहाँ अचित्त भूमिका संकेत है-दग्ध स्थान आदि शस्त्रोपहत भूमि तथा जिस भूमि पर लोगों का आवागमन होता है वह भूमि अचित्त होती है।
परिट्ठवेज्जा-परित्याग करना। परित्याग करने की विधि यह है कि एकान्त स्थान चुनकर, उसे भली प्रकार देख-जाँचकर, रजोहरण आदि से साफ कर धीरे-धीरे डाल देना।
पडिक्कम्मे-प्रतिक्रमण करना, वापस लौटना। परठने की क्रिया के साथ प्रतिक्रमण को स्पष्ट करते हुए आचार्यश्री आत्माराम जी म. कहते हैं-"यद्यपि वृत्तिकार 'प्रतिक्रामेत'
__ श्री दशवैकालिक सूत्र : Shri Dashavaikalik Sutra
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