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atonement. (Dashavaikalik Sutra by Acharyashri Atmaram ji M., pages 205-209) ९२ : अहो जिणेहिं असावज्जा वित्ती साहूण देसिया।
मुक्खसाहणहेउस्स साहुदेहस्स धारणा॥ अहो, कितना अच्छा है कि तीर्थंकर देवों ने साधुओं के लिये पापरहित उस गोचरीरूपवृत्ति का उपदेश किया है, जो मोक्ष-साधना के कारणभूत साधु के शरीर को धारण करने में सहायक होती है॥१२॥
92. (At the end of the meditation he should think....) Oh! How good of the Tirthankars that they have prescribed this sinless process of seeking alms for the ascetic way of life; the process that maintains the body of the ascetic; the body which is the vehicle of spiritual practices directed at liberation.
९३ : नमुक्कारेण पारित्ता करित्ता जिणसंथवं।
सज्झायं पट्ठवित्ताणं वीसमेज्ज खणं मुणी॥ इस प्रकार आलोचना विचारणा के बाद साधु 'नमोअरिहंताणं' के पाठ से कायोत्सर्ग ध्यान करे। ध्यान के बाद जिन स्तुति करे अर्थात् 'लोगस्स' का पाठ बोले फिर सूत्र स्वाध्याय पूर्ण करके कुछ देर विश्राम करे॥९३॥
93. After all this he should once again commence meditation, silently reciting the Namokar mantra. He should then recite ‘Logassa' or some other panegyric of the Jina and start his normal studies. Later he should take some rest. विशेषार्थ :
श्लोक ९३. करित्ता जिणसंथव-पाठ का प्रचलित अर्थ तो 'लोगस्स उज्जोयगरे' पाठ से किया जाता है किन्तु भगवद् स्तुति की कोई भी २-४-५ गाथाएँ बोलने से भी जिन-संस्तव हो जाता है। आहार करने से पूर्व यह विधि करनी चाहिए। इस विधि से कई लाभ होते हैं। भिक्षाचरी के दोषों की विशुद्धि हो जाती है। स्वाध्याय आदि में समय लगने से गोचरी में हुआ श्रम भी दूर हो जाता है। | पंचम अध्ययन : पिण्डैषणा (प्रथम उद्देशक) Fifth Chapter : Pindaishana (Ist Section) १५७
हामी
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