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sour and stale water, or that which cannot quench my thirst, does not suit me and so it is unacceptable. विशेषार्थ : ___श्लोक ७८. अचंबिलं-बहुत खट्टा। आगम रचना काल में साधुओं को यवोदक, तुषोदक, सौवीर अरनाल आदि खट्टे जल ही अधिक मात्रा में प्राप्त होते थे। वे कांजी की तरह खट्टे होते थे। अधिक समय के होने पर उनकी खटास बढ़ जाती थी तथा बदबू भी पैदा हो जाती थी, ऐसे जल से प्यास भी नहीं बुझती और वे स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक होते हैं। अतः उनका निषेध है। इस संदर्भ को आगे बढ़ाते हुए आचार्यश्री आत्माराम जी महाराज कहते हैं"शंकित पदार्थ की उसी स्थान पर परीक्षा कर ले जिससे उसे फेंकना न पड़े। क्योंकि फेंकने में प्रायः अयत्ना हो जाने की संभावना रहती है।"
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(78) Acchambilam-extremely sour. During the period when the Agams were written the ascetics mostly got sour fluids that included various types of wash-water. These used to be sour like mustard water. After preparing such water the sourness used to increase with lapse of time and it started giving a stink. Such water did not quench thirst and it also became toxic. That is why such water was prohibited. Acharyashri Atmaram ji M. adds that when in doubt the thing should be examined at once and before taking it. If examined after acceptance, it will have to be discarded. This creates chances of carelessness in conduct and should be avoided.
७९ : तं च अच्चंबिलं पूअं नालं तिण्हं विणित्तए।
दितिअं पडिआइक्खे न मे कप्पइ तारिसं॥ (साधु द्वारा मना करने पर भी) यदि दातार स्त्री आग्रह करके इस प्रकार का खट्टा, सड़ा हुआ, प्यास बुझाने के अयोग्य पानी देने लगे, तो साधु उस देने वाली बहन से स्पष्ट कह दे कि इस प्रकार का दूषित पानी मुझे ग्रहण करना नहीं कल्पता है॥७९॥
79. If, even after refusing, the donor insists on giving such sour, stale and flat water, the ascetic should emphatically पंचम अध्ययन : पिण्डैषणा (प्रथम उद्देशक) Fifth Chapter : Pindaishana (Ist Section) १४९ |
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