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OMINARUM
५३ : असणं पाणगं वावि खाइमं साइमं तहा।
जं जाणिज्ज सुणिज्जा वा समणट्ठा पगडं इमं॥ ५४ : तं भवे भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पि।
दिति पडिआइक्खे न मे कप्पइ तारिसं॥ अन्न-पानी, खाद्य, स्वाद्य पदार्थ के सम्बन्ध में साधु स्वयं या अन्य किसी से न सुनकर यह जान ले कि वे पदार्थ श्रमणों के वास्ते बनाये गये हैं, तो वे पदार्थ साधु को अकल्पनीय होते हैं। अतः साधु देने वाली स्त्री से कह दे कि ये पदार्थ मुझे लेने नहीं कल्पते हैं॥५३-५४॥
53, 54. If an ascetic has heard or otherwise become aware that some food has been specifically prepared for the purpose of giving to shramans, then it is not proper for him to accept such food. So a disciplined ascetic should inform the woman that he is not allowed to accept such food.
५५ : उद्देसिअं कीअगडं पूइकम्मं च आहडं।
अज्झोअर पामिच्चं मीसजायं विज्जए॥ ___औद्देशिक, क्रीतकृत, पूतिकर्म, आहृत, अध्यवतर, प्रामित्य और मिश्रजात दोषयुक्त आहारों को साधु लेने से मना कर दे कि यह मुझ नहीं कल्पता है॥५५॥
55. An ascetic should refuse to accept such faulty food as auddeshik, kreetkrit, pootikarma, ahrit, adhyavatar, pramitya and misrajat, saying that he is not allowed to accept such food. विशेषार्थ :
श्लोक ५५. उद्देसियं-औद्देशिकं-साधु के ही निमित्त बनाया आहार। कीअगडं-क्रीतकृतम्-साधु के ही लिए खरीदकर मँगाया गया आहार।
पूइकम्म-पूतिकर्म-जो आहार सामग्री साधु के लिए बनाई जाए वह 'आधाकर्म' कहलाता है। जिस सामग्री में ऐसी ‘आधकर्मी' सामग्री का थोड़ा-सा अंश भी मिला हुआ हो वह सदोष | पंचम अध्ययन : पिण्डैषणा (प्रथम उद्देशक) Fifth Chapter : Pindaishana (Ist Section) १३५ |
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